पहले तमाम उम्र किसी न किसी डर में निकल गई
और अब ये डर कि तमाम उम्र निकल गई !
मैं जिया भी या नहीं मुझे इस की खबर नहीं
उम्र तो किसी न किसी उधेड़ बुन में निकल गई !
बाद लड़ने के उस से मैं ये सोचता रहा
बात तो कुछ भी न थी जुबां यूं ही फिसल गई !
उदास लम्हों में मैने ये महसूस किया है
तुम्हें याद किया मैंने और तबीयत बहल गई !
लकीरें मेरे हाथों की कुछ उम्दा तो न थीं
तेरा हुआ कर्म और मेरी किस्मत बदल गई !
उमर् जीने की सज़ा इक उमर् के बाद
समझ जाओ गे तुम भी जब उमर् निकल गई !
By Subhash Chander Gupta (Bewafa)
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