दरवाजे की घंटी बजती है......टन...टन। आती हूं, कहकर आशा गीले हाथ पोंछती हुई, साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई दरवाजा खोलती है। सामने बेटी रीता को सूटकेस के साथ खड़ी देख वो भी अकेली, अवाक रह जाती है। क्योंकि रीता ससुराल से मायके जब भी आती थी, पूर्व सूचना देकर या भाई के साथ ही आती थी, पर आज अचानक उसे देखकर पल भर के लिए खुशी के भाव आशा के चेहरे पर आये पर असमंजस की स्थिति ने उसे गम्भीर कर दिया। ‘मां’ कहां खो गईं, बेटी को घर के अन्दर भी नहीं बुलाओगी क्या? ‘अरे हां, मैं भी पागल हूं, आ-आ बेटी, अन्दर सा आराम से अपने कमरे में बैठ चल वहीं बातें करेेंगे।
तुझे अचानक सामने देखकर सोच में पड़ गई कि तू बिना बताए कैसे चली आई, मां हूं न तेरी, चिन्ता तो होगी ही और बता ससुराल में तेरी, सास जी, दामाद जी सब कुशल-मंगल तो हैं। हां-हां, मुझे भूख लगी है, पहले पेट पूजा फिर काम दूजा’। ‘ठीक है पहले तू खाना खा फिर फुरसत से मां, बेटी बातें करेंगे, कहकर आशा खाना लगाने के लिए देहरी पार कर ही रही थी कि रीता का मोबाईल टनटनाया और रीता के मुंह से दामाद जी का नाम सुनकर आशा दरवाजे की ओट में छिप कर खड़ी हो गई, ये सोचकर कि बेटी-दामाद की बातों से रीता के आने का कारण पता चल जाए, और हुआ भी यही। दोनों के वार्तालाप से आशा को सारी बात समझ आ ही गई, पर तब वो चुप्पी साधे रही, और रीता के लिए खाना, मिठाई सभी लाई व बड़े प्यार, मनुहार से उसे खिलाया।
काम से फुरसत पाते ही आशा बेटी के पास बैठ कर उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए बड़े प्रेम से पूछती है ‘बेटी क्या जो मैं समझ रही हूं वो सही है, या जो फोन पर सुना वही है। ‘क्या हुआ मां’ जैसे तुम कुछ जानती ही नहीं, इतनी अन्जान भी मत बनो रीता? पर कहो तो क्या हुआ।’ ‘तो सुनो, तुम अचानक ससुराल छोड़कर क्यों आई हो? मां मैं उस घर में नहीं रह सकती, वहां मेरा दम घुटता है, मुझे आजादी चाहिए। ‘पर रीता दामाद जी तो बहुत सरल हैं व सास भी तेरी तुझे प्यार करती है फिर कैसा बन्धन ? मां आपको क्या पता, ये तो मैं ही जानती हूं कि सास रानी कैसी हैं? पर रीता रिश्तों की डोर इतनी कमजोर भी नहीं होती कि जब चाहो तोड़ दो, जब चाहो जोड़ लो। ‘कुछ भी कहो मां, मैं वहां नहीं जाऊंगी’। बेटी छोटे-मोटे झगड़े कहा-सुनी तो घर-परिवार में होती ही रहती है, तो क्या ऐसे में विवाह जैसे मधुर बन्धन को तोड़ कर मायके में आकर रहा जाए, ऐसे नहीं होता रीता, रिश्तों को निभाया नहीं जिया जाता है, तब ही वो मधूर बनते हैं।
’माँ आप कुछ भी कहो, मैं अजय की मां के साथ नहीं रही सकती, वो मेरे हर काम में हस्तक्षेप, मैं सहन नहीं कर सकती, मां मुझे कतई पसन्द नहीं कि सासूमां हर समय बेटे के आसपास मंडराती रहे, खाने-पीने को पूछती रहे, कब ऑफिस जायेगा, देर से क्यूं आया जानती रहे, और तो और मां बेटे के जरा सिर में दर्द होने पर सारा घर सिर पर उठा लेती है, मां मैं अपनी अलग दुनिया में रहना चाहती हूं जहाँ सिर्फ मैं अजय व हमारे सपने हों, जहां अजय सिर्फ मेरा और मेरा ही हो’।
‘रीता ऐसा कैसे हो सकता है, उसका इकलौता बेटा अजय ही तो है, वो ही उसका सहारा है’ ‘पर मां मेरा भी तो पूरा जीवन है, उमगें हैं, सामने हैं उनका क्या?
‘बेटी अजय का तुझसे विवाह हुआ है, उसके और रिश्ते खत्म तो नहीं हो सकते, वो बेटा तो उसी मां का रहेगा। ‘बस मैं नहीं जाऊंगी कहकर रीता आराम से लेट गई।
रीता के तर्को से आहत मां परेशान होकर रूंधे गले से अश्रुधारा बहाती हुई निढाल होकर बैठ जाती है। मां, क्याें रो रही हो, सब ठीक हो जायेगा, कुछ ही दिनों में मां- बेटे का दिमाग ठिकाने आ जायेगा और अपनी भूल का पश्चाताप करते हुए मुझे लेने आ जायेंगे, आप स्वयं को दुःखी मत करो।
‘बेटी तूने बड़ी आसानी से ये बात कह दी, पर मैंने इस सत्य को अनुभव किया है, जब मैं सास बनी थी, पर तब नहीं जब मैं इस घर में बहू बनकर आई थी क्योंकि उस समय मैं अपनी ही दुनिया में मस्त रहती थी, तब कहां सोच पाती थी कि मेरा पति भी किसी का बेटा है, भाई है ये तो रीता अब जाना जब स्वयं उसी राह से गुजरी और अनुभव किया कि मेरी सास कैसे अपने बेटे से कुछ कहने व दो घड़ी उसका साथ पाने के लिए व्याकुल दृष्टि से उसे टुकर-टुकर देखा करती थी और मैं समझते हुए भी अनजान बनी तेरे पिता को उसकी मां के पास जाने ही नहीं देती थी, बेटी मां का वो दर्द आज जब मेरी आंखों से छलकता हुआ, मेरे सामने भी उसी रूप में बार-बार आता है, तब मुझे भी रिश्तों की परिभाषा समझ आई, बेटी तू ऐसी गलती मत कर, रिश्तों को तोड़ना सरल होता है, पर जोड़ने में कभी-कभी पूरा जीवन व्यर्थ चला जाता है, बस इन्हें समझ रहते समझो, सहेजो व बिखरने न दो’।
बेटी ससुराल को मायके का दर्जा देते हुए स्वयं को रिश्तों से ऐसे बांध कि तेरा घर-परिवार स्वर्ग बन जाए और मां को उसका बेटा व तुझे तेरा पति मिल जाए।’
मां की ममस्पर्शी बातें सुनकर रीता स्वयं को रोक ना पाई व बोली’ मां, आज मेरी आंखें खुली हैं, मैं इतनी स्वार्थी हो गई थी कि रिश्तों का महत्व समझ ही नहीं पाई। बस अपने सपने तक ही पहुंच पाई, पर मां जब जागो तब ही सवेरा, ये तो कहा करती हो आप, अब मैं जाग गई हूं। और रीता खुशी-खुशी अपनी ससुराल लौट जाती है, रिश्तों को नए सिरे से संवारने उलझी लटों को सुलझाने।
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