रिश्ते बनाने की कला - अहिंसक संवाद

in language •  7 years ago 

अहिंसक संवाद (Nonviolent Communication) के लेखक मार्शल रोसेंबेर्ग अपनी किताब नॉनवायलेंट कम्युनिकेशन - ए लैंग्वेज ऑफ़ लाइफ में हमारी भाषा की शैली और उनमे उपयोग होने वाले कुछ चुनिन्दा शब्दों के बारे में बहुत बखूबी हमारा ध्यान आकर्षित करते है | इस भाषा के शैली या कुछ चुनिन्दा शब्द को वो 'लाइफ एलियनेटिंग कम्युनिकेशन' अर्थात जीवन से दूर ले जाने वाली भाषा कहते है |


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उनके अनुसार हम लोगो से कैसे रिश्ते बनाएँगे ये इस बात पे निर्भर करता है के हमारी बातचीत की भाषा कैसी है | अगर हमारी बातचीत में ठोस अवलोकन (ऑब्जरवेशन) हो, उस ऑब्जरवेशन से जुडी भावनाए, उस से पूरी होने वाली या ना पूरी होने वाली जरूरते, और अंत में सकारात्मक विनंती हो तो इस तरह की भाषा की शैली बहुत हद तक हमें रिश्तो में एक दुसरे को ठीक प्रकार से समझने में मदद करती है | परन्तु अगर हमारी भाषा में धारणा (जजमेंट), तुलना (कोम्पेरिसन), मांग (डिमांड), जिम्मेदारी से इनकार (डिनायल ऑफ़ रेस्पोंसिबिल्टी) हो तो सामने वालो को हमें समझना एवं हमें सामने वाले को एक इंसान के तरह देख पाना नामुमकिन सा हो जाता है | और हम जीवन का स्त्रोत “जरूरतों” पे ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते |

उदहारण के तौर पे अगर मै किसी को ये बोलता हु के “तुम बहुत आलसी हो” तो मै उस व्यक्ति पे एक तरह का ठप्पा लगा देता हु | हम सभी लोग रोजमर्रा की भाषा में इस तरह के ठप्पे लगाते है - राहुल कामचोर है, अनुराग अनाड़ी है, नेहा आलसी है, सारे नेता भ्रष्टाचारी होते है, पुलिस वाले रिश्वतखोर होते है | इस तरह के ठप्पे के कारण हम सामने वाले तक अपनी बात नहीं पहुचा पाते और सामने वाले को बहुत जल्द ये ठप्पा सुनके बुरा लग सकता है| हम लोग ठप्पा इस लिए लगाते है क्यों की हमें अपनी बात ठीक प्रकार से रखना कभी सिखाया ही नहीं गया | हमें ये ही सिखाया जाता है की सामने वाले में क्या बुराई है उसे देखो, सामने वाले ने क्या गलत किया है उसको मुद्दा बनाओ | यहाँ गलती हमारे शिक्षा प्रणाली की है | और जब मै ये बोल रहा हु तो मै भी वही कर रहा हु | मै भी यही सोच रहा हु के गलती किस की है |


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मार्शल कहता है की जजमेंट एक तरह से हमारी अपूर्ण जरुरत की और इशारा करते है | अगर हम किसी और को जज कर रहे है या किसी पे ठप्पा लगा रहे है तो हमारी कोई जरुरत है जो पूरी नहीं हुई है | अगर हम ठप्पा लगाने के बजाये जरुरत को समझने की कोशिश करे तो शायद हमें अपने आप में स्पष्टता आएगी और शायद तब सामने वाले को भी हमारी बात समझना आसान होगा |

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पर जरुरत को समझ पाना इतना भी आसान नहीं है | कारण - क्यों की हमें ये कभी सिखाया ही नहीं गया | मेरे आने वाले ब्लॉग में मै आपको बताऊंगा के जब हम बातचीत में अटक जाये और बातचीत मजेदार होने के बजाये तनावपूर्ण होने लगे तो कैसे उस समय में कैसे अपनी और सामने वाले की जरुरत का पता लगाये |

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nice description of how to establish communication and which factor are most important in that