जिनवाणी -- धर्म : स्वरुप और सिद्धांत --- भाग #१

in life •  6 years ago 

धर्म : स्वरुप और सिद्धांत

इस विश्व में अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य को यह भली प्रकार जानना आवश्यक है कि धर्म क्या है ? जो व्यक्ति अपने धर्म को नहीं जानते वे अन्धों के सामान हैं । वे कभी भी अपने लक्ष्य तक पहुँच नहीं पाते । उनके पल्ले केवल जीवन भर भटकन ही पड़ती है । एक के पश्चात् दूसरा और दुसरे के बाद तीसरा, इस प्रकार अनेक जीवन व्यतीत होते चले जाते हैं और जन्म-मरण का चक्र उन्हें घेरे रहता है ।
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अत्यंत संक्षेप में यदि पाप और धर्म की परिभाषा की जाए तो कह सकते हैं कि पटक देने वाला, पतित करने वाला, नीचे गिराने वाला पातक है, पाप है, और धरकर रखने वाला, धारण करने वाला, धर्म है ।

“धारणत् धर्ममित्याहु: ।”

जो धारण करे, पतित होने से बचाए, वही धर्म कहा गया है । कहा गया है कि –

“दुर्गति प्रर्सतान जीवान यस्माद् धारयते तत: ।

धत्ते चैतान शुभस्थाने, तस्माद् धर्म इति स्थित: ।।”

अर्थात् मोक्ष में धारण करके प्रगति की प्रेरणा देता है वही धर्म है । उसकी प्राप्ति के लिए जिन मान्यताओं के आधार पर हमारा जीवन चल रहा है वह मत है, तथा उस मत का अनुसरण हम जिन निश्चित विचारों के आधार पर करते हैं वे विचार ही सिद्दान्त हैं ।

अब हमें यह विचार भी करना चाहिए कि उस धर्म का स्वरूप क्या है जिसने कि हमें धारण कर रखा है? निश्चित है कि जिसने हमें धारण कर रखा है उसे हमें भी धारण करना चाहिए । वही धारणा रूप भी है । धारक, धार्य और धारणा – तीनों धर्म रुप हैं ।

धर्म को हम मानवता का प्रवेश द्वार कह सकते है । यदि हमें किसी भवन में प्रवेश करना है तो हमें द्वार से ही प्रविष्ट होना पड़ेगा । उसी प्रकार सिद्धि को यदि एक प्रसाद माना जाए तो उसमे प्रवेश के लिए धर्म द्वार से ही जाना होगा । विवेकी पुरुषों ने कहा है – “धम्मं चर” – धर्म का आचरण करो । शास्त्रकारों ने इसलिए प्रथम धर्म को मंगलकारी मन है ।

खंतीय मद वज्जव, मुत्ती तव संजमेय बोद्ध ।

सच्चं सोयं आकींचण च नंभं च जइ धम्मो ।

क्षमा, मार्दव, आर्जव, संतोष, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनत्व और ब्रह्मचर्य – इनका पालन करने से ही धर्म का पालन सम्भव है ।

उपरोक्त गुणों को निम्न प्रकार से परिभाषित भी किया जा सकता है –
(१) क्रोध का त्याग = क्षमा ।
(२) मान का त्याग = मार्दव ।
(३) माया का नाश = आर्जव ।
(४) लोभ का नाश = संतोष ।
(५) मिथ्यात्व का नाश = सत्य ।
(६) अव्रत का नाश = संयम, अर्थात् असंयमी प्रव्रत्ति का सर्वथा नाश करना ।
(७) प्रमाद का त्याग = तप ।
(८) कषाय का त्याग = त्याग ।
(९) योग का नाश = अकिंचनत्व ।
(१०) धर्म का पालन करके ब्रह्म में अर्थात् सिद्ध दिशा में चलते रहना ‘ब्रह्मचर्य’ है ।

उक्त धर्मों का पालन करने के लिए जो परम्परागत मन्तव्य है वह सच्चा मत है । इसके विपरीत जो कुछ है वह कुमत है । दस धर्मों के विरुद्ध सभी कुधर्म हैं ।

अपनी इन्द्रियों तथा मन को इन दस धर्मों में रत करना चाहिए । यह सिद्धान्त है । इससे आगे की बात अगली पोस्ट में करेंगे ।

धर्म के स्वरुप और सिद्धान्त की Steeming

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We need to reject any politics that targets people because of race or religion. This isn't a matter of political correctness. It's a matter of understanding what makes us strong.

क्या बात है मेहता जी आप तो वाकई में काफी प्रतिभाशाली हैं|मुझे तो लगता था की आप केवल फोटोग्राफी में निपुण हैं,लेकिन आप ने धर्म का इतने अच्छे और निष्पक्छ तरीके से ब्याख्यान दिया काफी अच्छा लगा|
बहुत बहुत धन्यवाद|
हर हर महादेव!

हर-हर महादेव
आपका एक एक शब्द निखार लिए हुए है.

क्या आप जानते है मेहता जी जो यह आपका post तो अच्छा है पर आप जो अब हिंदी मै post कर रहे है ना वह मुझे बहोत ही ज्यादा अच्छा लग रहा है धन्यवाद मेहता जी ऐसे ही post करते रहिये की हमे भी लगे की हिन्दी मै भी post करके upvote और comment मिलेगी

Yes I agree with you that base of life should be religion, but in our community there so many religion which has adopted by people's to go on at Right path in life. Everyone is independent to adopt his religion and they may serve the society to make a peaceful around the whole world and respect every religion.

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you told very true and correct.

बहुत अच्छे मेहता जी। आपके पोस्ट पड कर ईश्वर की अनुभूति होती है

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Nice your blog

Very nice post!!!

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apki success ka raz kya he ?

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