बॉलीवुड में 'बायोपिक' का जमाना है. अभिनेता संजय दत्त पर बनी बायोपिक संजू सुपरहिट हो गई है, कई दूसरी कतार में हैं. स्वतंत्रता सेनानी, खिलाड़ी, गुंडे, आतंकवादी सब पर बायोपिक बन रही हैं या बन चुकी हैं. सीधे सीधे कहें तो हर उस शख्स पर बायोपिक बन रही है, जिसकी जिंदगी में ज़रा भी उठापटक हुई है. संजय दत्त को तो जिंदगी की रिंग में किस्मत ने उन्हें इतनी बार उठाकर पटका है कि डब्लूडब्लूई का पहलवान भी सिहर जाए यानी उनकी बायोपिक तो बनती ही थी.
आम आदमी की बायोपिक क्यों नहीं बनती?
बायोपिक का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें जिस बंदे की बायोपिक है, उसे कुछ नहीं करना होता. सिर्फ इजाजत देनी होती है और रॉयल्टी लेनी होती है. बायोपिक मूलत: संबंधित व्यक्ति के अपने खास क्षेत्र में संघर्ष का दस्तावेज होती है. फिर क्षेत्र चाहे खेल का हो या अंडरवर्ल्ड का. लेकिन बायोपिक अगर संघर्ष का दस्तावेज ही है तो आम आदमी की बायोपिक क्यों नहीं बनती? महंगाई से लड़ते हुए, बच्चों की मोटी फीस भरकर दोहरा होते हुए, ईएमआई के बोझ तले दबकर रोते हुए, कभी कभी मुफलिसी का रोना रोते हुए भी पत्नी और प्रेमिका के बीच झूलते हुए आम आदमी भी तो संघर्ष ही करता है. लेकिन-उसकी बायोपिक बॉलीवुड नहीं बनाता. मुमकिन है कि बॉलीवुड को डर हो कि ऐसा करने से सारी बायोपिक एक सी लगेंगी. आम आदमी की सारी बायोपिक एक दूसरे की नकल लगेंगी तो बॉलीवुड में कॉपीराइट का झंझट होगा. लड़ाई होगी. बॉलीवुड आपस में लड़ेगा तो बंटेगा. बांटने-बंटने के चक्कर से खुद को दूर करते हुए बॉलीवुड ने अपनी फिल्मों को आम आदमी से ही दूर कर दिया है. न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी.
वैसे, ये भी हो सकता है कि जिन संघर्षों में जीकर आम आदमी खुद को बड़ा तुर्रम खां समझता है, उसे बॉलीवुड तुच्छ समझता है. आम आदमी पूरी जिंदगी में देसी तमंचे उर्फ कट्टे के दर्शन नहीं कर पाता, संजय दत्त ने एके-56 खरीदी थी. महंगाई के दौर में आम आदमी से एक अफेयर कायदे से नहीं संभल पाता लेकिन संजय की बायोपिक में जिक्र है कि उनकी 350 से ज्यादा लड़कियों से खास दोस्ती रही. मतलब यह कि आम आदमी का संघर्ष भी बड़ा फालतू टाइप होता है, जिसमें न रोमांच, न सनसनी.
तो इसीलिए आम आदमी की बायोपिक नहीं बनती?
'बायोपिक' के केंद्र में आम आदमी का संघर्ष शायद इसलिए भी नहीं होता क्योंकि ऐसा होते ही आम लोगों के बीच संघर्ष होने का डर है. हर आम आदमी अपने संघर्ष को महान मानता है, और उसे लगता है कि उसने जितना संघर्ष किया है, उतना कोई कर ही नहीं सकता. बॉलीवुड निर्माता शायद इस पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहते और इसीलिए आम आदमी की बायोपिक नहीं बनती. इसलिए हे आम आदमी! जाओ और संजू देखो.....बाकी अपने संघर्ष के हिस्से सुनाने के लिए तुम्हारे पास तुम्हारे बच्चे हैं.