सनातन धर्म की मान्यतानुसार इंसान के सुख और दुःख उसके प्रारब्ध ( पूर्व जन्मो के कर्मो ) के अनुसार भोगने पड़ते हैं। कहा भी गया हैं - ' प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर। '
तो प्रश्न ये बनता हैं, कि जब प्रारब्ध के अनुसार सुख दुःख भोगने पड़ते हैं, तो इस जन्म के कर्मो से सुख कैसे मिल सकता हैं?
भगवान श्री कृष्ण ने गीता के उपदेश में बताया हैं, कि कर्मो को करने में इंसान स्वतंत्र नहीं हैं। उसकी फल प्राप्ति भी इंसान की अपेक्षा के अनुसार नहीं हो सकती। फिर भी अज्ञानता के कारण इंसान कर्म बंधन में बंध जाता हैं।
कर्म करने और उसके फल की प्राप्ति ईश्वर की मर्जी से होती हैं, पर जब कोई काम अच्छा होता हैं, तो इंसान बोलता हैं कि उसने अच्छा किया तब अच्छा हुआ। जब किसी कर्म का फल बुरा या अपेक्षित नहीं निकलता तो दोष ईश्वर को देता हैं, कि ईश्वर ने मेरे साथ ठीक नहीं किया।
अज्ञानता ये हैं, कि हम कर्म के कर्ता न होते हुए भी कर्तापन के कारण दोष के भागी बन जाते हैं। यदि हम कर्तापन छोड़कर माध्यम बन कर्म करे, तो कर्मो के बंधन में बंधने से बच सकते हैं और जब कर्मो का बंधन होगा ही नहीं तो फल भोगने या दुःख प्राप्ति का हेतु ही नहीं रहेगा। फिर जीवन में सिर्फ और सिर्फ सुख होगा।
इस विचारधारा पर आपके विचार सादर आमंत्रित हैं।
आपका - indianculture1
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