किसने मनुष्य को आपस में बाँटा?
किसने मनुष्य को छलनी से छाँटा?
हमारे इस नज़रिए ने इंसान को मुँह के बल धकेला
इसने छोड़ दिया मनुष्य को गहरे तिमिर में अकेला
क्यों इंसान पग-पग पर खुद को ठुकराता
क्यों इंसान खुदपर सवाल उठाता
क्यों नहीं मनुष्य खुद की पहचान बनाता
क्यों मनुष्य दूसरों की सोच को अपनी पहचान बनाता
कभी इन पीड़ितों के मन में झाँककर तो देखो
ज्ञात होगा कि अन्न से ज़्यादा इज़्ज़त की माँग है
कभी इनके कदमों पर चलकर तो देखो
ज्ञात होगा कि इनके लिए जीवन का यही नाम है
जिसे ये समाज छूने को कतराता
कभी उनकी पीड़ा के बारे में भी सोचो
जिसे ये समाज हँसी का पात्र बनाता
कभी उनके आँसू भी तो पोंछो
किसी की हँसी ने इन्हें रोने पर मजबूर किया
इन्हें देखा तो किसी को दुख न महसूस हुआ
आँसू बहाकर भी दुख कम न होगा
आखिर जिस समाज में रहते है उसी ने दुख दिया
A poem by Sanit Jain on Flames that Roar