खोटा सिक्का जब भी सुनती हूँ, मानो कोई गाली दे रहा है,
लेकिन कभी समझ नहीं पायी की खोटा सिक्का बोला क्यों गया ?
बेचारा एक अकेला भी खोटा, हज़ारों में मिला तब भी खोटा ही कैसे रह गया ?
रूपया जो हुआ खरा, तो आना कैसे खोटा हुआ,
कीमत सोलह आनो की भी वही, खोटा फिर छोटा कैसे हुआ ?
कितना बेचारा लताड़ा गया, ऊपर वाले को भी खबर नहीं,
बोला मुझपर मत चढ़ा, इसकी कुछ औकात नहीं
आने जोड़ रूपया बना, सवा अब खरे पे भारी,
फिर भी बेचारा क्यों सुने की तेरी कुछ औकात नहीं?
मन मानने को राज़ी नहीं, की खोटे में कुछ बात नहीं,
अस्तित्व उसका भी है, हैसियत उसकी भी है,
साथ का बस मोहताज है, इसलिए शायद खरे की बस औकात है |
वो छोटू, जिसको बोला गया कल खोटा सिक्का; वो भी कल खरा होगा
होगी औकात उसकी भी कल, जब वो अपने पैरों पर खड़ा होगा
लेकिन ये तब भी ज़रूरी नहीं की औरों का साथ ही कामियाबी दिलवाएगा
अपने दम पर छोटू भी बहुत कुछ कर दिखायेगा |
सवाल मेरा अब भी वही, जब छोटू अकेले ही खोटे से खरा हो जाएगा,
तब भी क्या एक अकेला खोटा सिक्का, खोटा ही कहलायेगा?