श्री योग वशिष्ठ महारामायण
विद्याधरवैराग्य वर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिसके मन से मैं' और
मेरे' का अभिमान गया है उसको शान्ति हुई है और जिसके हृदय में मैं'
देह' मेरे'
सम्बन्धी' `गृह' आदिक का अभिमान है उसको कदाचित् शान्ति नहीं और शान्ति बिना सुख नहीं |
हे रामजी! प्रथम आप बनता है तब जगत् है | जो आप न बने तो जगत् कहाँ हो? इसका होना ही अनर्थ का कारण है | जिस पुरुष ने अहंकार का त्याग किया है वह सर्वत्यागी है और जिसने अहंकार का त्याग नहीं किया उसने कुछ नहीं त्यागा | जिसने क्रिया का त्याग किया और आपको सर्वत्यागी मानता है सो मिथ्या है | जैसे वृक्ष की डालें काटिये तो फिर उगता है नाश होता, तैसे ही क्रिया के त्याग किये त्याग नहीं होता | जो त्यागने योग्य अहंकार नष्ट नहीं होता तो क्रिया फिर उपजती है इससे अहंकार का त्याग करो तब सर्वत्यागी होगे |
इसका नाम महात्याग है और स्वप्न में भी संसार न भासेगा, जाग्रत का क्या कहना है- उसको संसार का ज्ञान कदाचित् नहीं होता | हे रामजी! संसार का बीज अहंभाव है, उसी से स्थावर जंगम जगत् भासता है, जब इसका नाश हुआ तब जगत््भ्रम मिट जाता है--इससे इसके अभाव की भावना की भावना करो | जब तुम्हें अहंभाव की भावना फुरे तो जानो कि मैं नहीं | जब इस प्रकार अहं का अभाव हुआ तब पीछे जो शेष रहेगा सो ही आत्मपद है |
हे रामजी! सब अनर्थों का कारण अहंभाव है उसका त्याग करो | हे रामजी! शस्त्र के प्रहार और व्याधि को यह जीव सह सकता हे तो इस अहं के त्यागने में क्या कदर्थना है?
हे रामजी! संसार का बीज अहं का सद्भाव है, उसका नाश करना मानो संसार का मूलसंयुक्त नाश करना है-इसी के नाश का उपाय करो | जिसका अहंभाव नष्ट हुआ है उसको सब ठौर आकाशरूप है और उसके हृदय में संसार की सत्ताकुछ नहीं फुरती | यद्यपि वह गृहस्थ में हो तो भी उसको यह प्रपञ्च शून्य वन भासता है | जो अहंकार सहित है और वन में जा बैठे तो भी वह जनों के समूह में बैठा है, क्योंकि उसका अज्ञान नष्ट नहीं हुआ | जिसने मन सहित षट् इन्द्रियों को वश नहीं किया उसको मेरी कथा के सुनने का अधिकार नहीं- वह पशु है | जिस पुरुष ने मन को जीता है अथवा दिन प्रतिदिन जीतने जी इच्छा करता है वह पुरुष है और जो इन्द्रियों का विश्रामी अर्थात् क्रोध, मोह से सम्पन्न है वह पशु है और महाअन्धतम को प्राप्त होता है |
हे रामजी! जो पुरुष ज्ञानवान् है उसमें यदि इच्छा दृष्ट आती है तो वह उसकी इच्छा अनिच्छा ही है और उसके कर्म अकर्म ही हैं | जैसे भूना दाना फिर नहीं उगता पर उसका आकार भासता है तैसे ही ज्ञानवान् की चेष्टा दृष्ट आती है सो देखनेमात्र है उसके हृदय में कुछ नहीं |
हे रामजी! जो पुरुष कर्मेन्द्रियों से चेष्टा करता है और हृदय में जगत् की सत्यता नहीं मानता उसे कोई बन्धन नहीं होता और जो जगत् को सत्य मानकर थोड़ा भी कर्म करता है तो भी वह फैल जाता- जैसे थोड़ी अग्नि जागकर बहुत होजाती है-ज्ञानी को बन्धन नहीं होता | उसकी प्रारब्ध शेष है सो भी हृदय में नहीं मानता और जानता है कि ये कर्म शरीर के हैं आत्मा के नहीं जैसे कुम्हार के चक्र का वेग उतरता जाता है तैसे ही प्रारब्धवेग उसका उतर जाता है और फिर जन्म नहीं होता, क्योंकि उसको अहंकाररूपी चरण नहीं लगता इससे अहं कार का नाश करो, जब अहंकार नष्ट होगा तब सबसे आदिपद की प्राप्ति होगी जो परम निर्वाणपद है और जिसमें निर्वाण भी निर्वाण हो जाता है |
हे रामजी! जब वर्षाकाल होता है तब बादल होते हैं, जब शरत्काल आता है तब बादल जाते रहते हैं |
निरंतर......