आइए थोड़ा जानकारी बढ़ाते हैं ..

in asam •  6 years ago 

आइए थोड़ा जानकारी बढ़ाते हैं .. शानदार असम के बारे में ... आपने असम के अनेक नाम सुने होंगे उनमे से जो Surname होता है उसके बारे में रोचक तथ्य ये हैं ... जब 12वीं सदी में अहोम राज्य की स्थापना हुई तो वहां राजा और पदाधिकारियों के जो पद होते थे उसके अनुसार ही आज के Surname हैं ..
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बारबोरा - सरकार में अधिकारी यानी आज के IAS बराबर
बरुआ - सरकार में सचिव यानि कि शायद आज का PCS अफसर
शूलधार बरुआ - सरकार की अति महत्वपूर्ण नीतियों का निर्धारण करने वाला यानी आज के प्रमुख सचिव जैसा
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डेका - 10 सैनिकों की कमान का अगुआ
बोरा - 20 सैनिकों ने कमान का अगुआ
सैकिया - 100 सैनिकों ने कमान का अगुआ
हज़ारिका - 1000 सैनिकों ने कमान का अगुआ
राजखोवा - 3000 सैनिकों ने कमान का अगुआ
फुकन - 6000 सैनिकों ने कमान का अगुआ
बोरफुकन - पूरे सेना का मुखिया यानी सेनापति अर्थात Chief Commander of Army.
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अहोम के महान सेनापति लचित यानी लचित बोरफूकन की कहानी हमने एक बार बताई थी ... लाचित बोरफूकन ही एकमात्र ऐसे थे जिन्होंने बरुआ, शूलधार बरुआ और फिर बोरफूकन की पदवी को सुशोभित किया था ... अहोम राज्य कभी किसी का गुलाम नहीं रहा ..

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि हमेशा अहोम राज्य पर सारे मुग़ल आक्रांताओं जैसे खिलज़ी, तुगलक, अब्दाली, लोधी, बंगाल सुल्तान आदि सबने आक्रमण किया था लेकिन सबको कूच बेहार से लेकर गौहाटी के बीच हरा के मार पीट के भेज दिया गया था ... इतिहास की पुस्तकों में अहोम राज्य से इन सबके हार और लात खाने की खूबसूरती को छिपा लिया गया है ...
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1669 में औरंगज़ेब ने 40 राजपूत राजाओं को 70000 हज़ार पैदल, 2000 घुड़सवार, तोपखाना आदि लेकर राजपूत राजा राम सिंह ने नेतृत्व में विशाल सेना अहोम पर कब्ज़ा करने भेजा था ..... राम सिंह के कहने पर सिख गुरु तेग बहादुर सिंह भी गए थे लेकिन उन्होंने और सिक्खों ने लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था ... लाचित बोरफूकन ने मात्र 10000 सैनिकों के साथ छापामार युद्ध शैली में ब्रम्हपुत्र नदी के बीचोबीच घेर लिया था और उन सबको मार भगाया था .. मुग़ल सेना को लाचित बोरफूकन ने बंगाल के पुरुलिया तक खदेड़ दिया था .... इसको सरायघाट का युद्ध बोला जाता है और बीच नदी लड़ी जाने वाली पहली लड़ाई थी जिसमे तोपों को अहोम सेना ने नदी में पटरे पर उतार के लड़ा था जिसकी मुग़ल सेना ने कल्पना भी नहीं किया था ... इसके बाद कभी किसी ने अहोम के तरफ आँख उठा के नहीं देखा था ..
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"The Battle of Saraighat" विश्व के कई Defence Studies के कोर्स के पाठ्यक्रम का हिस्सा है ... भारत में जो NDA कैडेट सबसे अच्छा होता है और मैडल जीतता है उसको "लचित बोरफूकन" अवार्ड दिया जाता है ...

सरायघाट का युद्ध :: The Battle of Saraighat ::: असम का परमवीर योद्धा "लचित बोरफूकन" ...
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अहोम राज्य (आज का आसाम या असम) के राजा थे चक्रध्वज सिंघा .. और दिल्ली में मुग़ल शासक था औरंगज़ेब। औरंगज़ेब का पूरे भारत पे राज करने का सपना अधूरा था बिना पूर्वी भारत पर कब्ज़ा जमाए ... इसी महत्वकांक्षा के चलते औरंगज़ेब ने अहोम राज से लड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इस सेना का नेतृत्व कर रहा था राजपूत राजा राजाराम सिंह .. राजाराम सिंह औरंगज़ेब के साम्राज्य को विस्तार देने के लिए अपने साथ 4000 महाकौशल लड़ाके, 30000 पैदल सेना, २१ राजपूत सेनापतियों का दल, 18000 घुड़सवार सैनिक, 2000 धनुषधारी सैनिक और 40 पानी के जहाजों की विशाल सेना लेकर चल पड़ा अहोम (आसाम) पर आक्रमण करने।
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अहोम राज के सेनापति का नाम था "लचित बोरफूकन" .. कुछ समय पहले ही लचित बोरफूकन ने गौहाटी को मुग़ल शासन के मुक्त करा के दिल्ली के मुग़ल शासन से आज़ाद करा लिया था। इससे बौखलाया औरंगज़ेब जल्द से जल्द पूरे पूर्वी भारत पर कब्ज़ा कर लेना चाहता था। ......... राजाराम सिंह ने जब गौहाटी पर आक्रमण किया तो विशाल मुग़ल सेना का सामना किया अहोम के सेनापति "लचित बोरफूकन" ने ..... मुग़ल सेना का रास्ता रोक गया ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे .... इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10000 सैनिक मारे गए और लचित बोरफुकन बुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गए ... अहोम सेना का बुरी तरह नुक्सान हुआ। राजाराम सिंह ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण ने लिए कहा ... जिसको राजा चक्रध्वज ने यह कह कर कि "आखरी जीवित अहोम भी मुग़ल सेना से लड़ने के लिए तैयार है" अस्वीकार कर दिया। लचित बोरफुकन जैसे प्लानर और जाबाज सेनापति के घायल और बीमार होने से अहोम सेना मायूस हो गयी थी। .. अगले दिन ही लचित बोरफुकन ने राजा को कहा कि जब मेरा देश, मेरा राज्य आक्रांताओं द्वारा कब्ज़ा किये जाने के खतरे से जूझ रहा है, जब हमारी संस्कृति, मान और सम्मान खतरे में हैं तो मैं बीमार होकर भी आराम कैसे कर सकता हूँ, मैं युद्ध भूमि से बीमार और लाचार होकर घर कैसे जा सकता हूँ ... हे राजा युद्ध की आज्ञा दें। ...
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इसके बाद ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पे वो ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया .... जिसमे "लचित बोरफुकन" ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी मुग़ल सेना को रौंद डाला .. अनेकों मुग़ल कमांडर मारे गए और मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई .. जिसका पीछा करके लचित बोफुकन की सेना ने मुग़ल सेना को अहोम राज के सीमाओं से काफी दूर खदेड़ दिया ...... इस युद्ध के बाद कभी मुग़ल सेना की हिम्मत नहीं हुई पूर्वोत्तर पर आक्रमण करने की जिससे ये इलाका कभी गुलाम नहीं बना ....
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लोगों को मालूम नहीं कि आज के समय जो NDA कैडेट बेस्ट होता है उसको "लचित बोरफुकन" मैडल मिलता है ................ आज के आसाम में जोरहट शर में लचित बोरफुकन की प्रतिमा है, इसके नींचे अभी भी उनके अवशेष सुरक्षित रखे हुए हैं ....... कभी जोरहट जाना तो उन चरणों पर शीश झुका देना .......
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रंजय त्रिपाठी

आइये आज आपको इतिहास की किताबों से गायब एक और महान सेनानी - योद्धा से मिलाते हैं ....
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पंद्रहवीं - सोलहवीं शताब्दी के समय पूर्वोत्तर के अहोम राज (आज असम ) में ही था आज का कूच बिहार। कूच बिहार के राजा का नाम था नर नारायण और उनके छोटे भाई का नाम था सकलध्वज जिनको चिल्लाराय भी बोला जाता था। चिल्लाराय राजा अहोम राजा बिस्वा सिंघा के तीसरे पुत्र थे। राजा बिस्वा सिंघा के बाद राजा बने नर नारायण परंतु देश के सुरक्षा और विस्तार का काम था चिल्लाराय का। चिल्लाराय ने ही कूच वंश (साम्राज्य) नींव रखी थी। चिल्लाराय के रण कौशल के दम पर कूच वंश का राज पूरे अहोम से त्रिपुरा नागालैंड और उत्तरी बंगाल तक फैला था। चिल्लाराय की सेना को नारायणी सेना कहा जाता था। चिल्लाराय के नेतृत्व में सम्पूर्ण पूर्वोत्तर पर राजा नर नारायण का ही शासन था। ... चिल्ला राज ने कभी भी किसी निहत्थे पर अत्याचार नहीं किया और न ही चिल्लाराय ने अनावश्य युद्ध करके दुसरे राज्य के राजाओं को मारा। चिल्लाराय ने भूतिया, कछारी और अहोम राज्यों का विलय करवा के एक अखण्ड पुर्वीत्तर राज्य बनाया था। जिससे हर समय अहोम और कूचों के बीच चल रही लड़ाइयां समाप्त हो चुकी थी।
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जब भारत पर सुल्तान सुलैमान कर्रानी के नेतृत्व में अफगानों ने आक्रमण किया तब सभी को हराते हुए सुलैमान कर्रानी की सेना पूर्वोत्तर कूच बिहार तक आ पहुंची। अफगान की युद्ध शैली से अनजान अहोम हार गए और अफगान उनको गौहाटी के आगे तक धकेल ले गए। एक समय अफगानों ने राजा नर नारायण और चिल्लाराय को घेर लिया था और लगभग बंदी बना चुके थे परंतु चिल्लाराय अपने राजा के साथ निकल गए। अहोम में अंगार तक जाने के बाद चिल्लाराय ने सेना को फिर से एकत्रित किया ..... यहाँ सबको मालूम है कि छापामार युद्ध की शैली महान मराठा राजा छत्रपति शिवाजी की थी ... परंतु भारत में पहला छापमार युद्ध चिल्लाराय ने शुरू किया था .. चिल्लाराय ने अफगानों को हराने के लिए एक अद्भुत युद्ध शैली का अविष्कार किया और अहोम के जंगलों में कई महीनों तक छापामार और सीधे युद्ध का अभ्यास किया गया। उनको मालूम था की अफगानों को अहोम-कूच राज्य से दूर खदेड़ना होगा। इसलिए छापामार युद्ध के साथ अफगानों को सीधे युद्ध में कैसे हराया जाए उसकी रणनीति भी तैयार की। फिर अफगानों से युद्ध शुरू हुवा और चिल्लाराय खोए हुए सम्पूर्ण अहोम भूभाग को जीतते चले गए ..... अफगानों को चिल्लाराय की सेना ने पूर्णिया तक खदेड़ दिया ... अफगान सेना बुरी तरह टूट चुकी थी और आगे युद्ध जारी रखने की जगह वापस भाग गए ....
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सुल्तान सुलैमान कर्रानी के अफगान सेना ने गौहाटी स्थित कामाख्या मंदिर को तोड़ दिया था ... आज जिस कामाख्या मंदिर में लोग दर्शन के लिए जाते हैं उसका पुनःनिर्माण चिल्लाराय ने ही कराया था ... चिल्लाराय ने संत श्रीमंत शंकरदेव को शरण भी दिया था जिन्होंने वैष्णव मत का प्रसार किया था .... महान वीर योद्धा चिल्लाराय का देहांत 1577 में गंगा किनारे (आज के मालदा टाउन) चेचक की बीमारी होने से हुवा था ... महान योद्धा चिल्लाराय को सोलहवीं शताब्दी का सम्पूर्ण भारत का सबसे बड़ा युद्ध योजनाकर्ता, रणनीतिज्ञ और क्रियान्यवन करने वाला माना गया था। अफगानों से हारने के बाद जहाँ पूरा उत्तरी भारत चुपचाप दासता स्वीकार कर चूका था वही चिल्लाराय ने न सिर्फ अपना राज्य वापस जीता परंतु पूर्णिया तक का राज अफगानों से छीनकर विस्तार भी किया। उन्होंने कामाख्या मंदिर की भव्यता को वापस सहेज कर हिन्दू धर्म की रक्षा की बल्कि वैष्णव समाज को भी आसरा दिया ....
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