पन्ने पलटते जाओ यह अखबार ज़िन्दगी
रास मुझे न आई यह बेज़ार ज़िन्दगी
ग़ैरों की तरह मिलती हो जब भी मिलती हो
मुहब्बत से गले लगाओ एक बार ज़िन्दगी
हर रोज़ किसी ग़ैर के साथ रहा करता हूं मैं
एक पल मेरे साथ तू भी गुज़ार ज़िन्दगी
दिन रात डूबे रहते थे आगोश में तेरे
कहीं खो सी गयी है मेरी वो गुलज़ार ज़िन्दगी
ज़माने हो गए तुमसे बैर चलता रहा मगर
दौर ए मुहब्बत के हैँ अब आसार ज़िंदगी
बुरे चेहरे मुझे देखें तो खुद बा खुद जल उठें
कुछ इस तरहाँ से नज़रें मेरी उतार ज़िन्दगी
कोई लौट के आये न इन तंग गलियों में
अभी भी लग रहा है हुस्न का यहाँ बाजार ज़िन्दगी
वो पतझड़ की तरहाँ मेरे ही पत्तों को गिरा के चल दिये
फिर भी मैं ज़माने में ठहरा गुनहगार ज़िन्दगी
वो कहती थी तुम्हारे बिन जीना है नहीं मुमकिन
झूठ का फैला है कारोबार ज़िन्दगी
-हर्षित "अज़ीज़"
Beautiful poem.
Read or write.
But do not apply to be sad!!
मुसकरा के जी लै परमातमा की दी हुई आ जिनदगी.
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