हम जानते हैं, कि बहुत-से लोग शक्ति, धन, उत्तम स्वास्थ्य व तमाम अनुकूल परिस्थितियों के होते हुए भी कुछ ऐसा नहीं कर पाते, कि उच्च पंक्ति में स्थान बना पाएं, क्योंकि उनके पंख तो होते हैं, पर उनमें हौसले की उड़ान के जोश का अभाव होता है. कभी-कभी ये सब अनुकूलताएं अधिक लाड़-प्यार के कारण उनके पतन का कारण भी बन जाती हैं. दूसरी ओर ऐसे भी लोग होते हैं कि, जिनके पास कोई और अनुकूलता हो या न हो पर, हौसले की उड़ान की कमी कतई नहीं होती. वे मालिक की ओर से कुछ प्रतिकूलता देने की शिकायत भी नहीं करते. बस, नियति मानकर मालिक ने जो दिया है, उसी का शुकराना करते हुए उसे धन्यवाद देते हैं और हौसले की मिसाल बनते हैं. जहां रोज़ बड़े-बड़े सत्संग सुनने-करने वाले भी इस मंज़िल तक पहुंचने में कामयाब नहीं हो पाते, ऐसे लोग वहां तक आसानी से पहुंच जाते हैं. उनका मानना है-
”मैं आंधियों से क्यों डरूं?
जब मेरे अंदर ही तूफ़ान है,
मैं इधर-उधर बेकार ही क्यों भटकूं ?
जब मेरे अंदर ही भगवान है.”
सचमुच उनके अंतर्मन में भगवान का प्राकट्य हो जाता है. आनंद नाम के हमारे अनोखे किरदार का शुमार ऐसे ही लोगों में किया जा सकता है. उनका जन्म ही विकलांगता के साथ हुआ. उनकी बांईं टांग घुटने तक ही थी. उनके अभिभावक भी आम अभिभावकों की तरह बेटे के जन्म का समाचार सुनकर बहुत खुश हुए थे. लेकिन, डॉक्टर ने उनको बेटे की शक्ल दिखाने से पूर्व ही उन्हें धीरे-से उनको बेटे को विकलांगता सहित स्वीकार करने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया था. अभिभावक भी संतोषी स्वभाव के और समझदार हरि-भक्त थे. यह सोचकर कि, ऐसी विकलांगता तो बाद में भी आ सकती थी वे, जैसा था वैसा ही स्वीकार करने को तैयार हो गए थे. वे बेटे का भोलाभाला और सुंदर मुखड़ा देखकर ही आनंदित हो गए थे और यह सोचकर कि, एक तो बेटा है, दूसरे अन्य कई बच्चों की तरह दोमुखी या ऐसी अजीब शक्ल तो नहीं है. उन्होंने उसी समय उसका नाम आनंद रख दिया, ताकि नाम के प्रभाव से ही वह सकारात्मक सोच वाला हो जाए. धीरे-धीरे समय के साथ सभी सामान्य हो गए. डॉक्टरों ने भरपूर सहयोग देकर उन्हें हालात से समझौता करने के लायक बना दिया. आनंद की सोच सचमुच सकारात्मक हो गई थी और वह कक्षा में अच्छे छात्रों में से एक माना जाने लगा. जब तक अभिभावक जीवित रहे, उसे किसी बात की फिक्र नहीं थी. पहले माता और फिर पिता के निधन से मानो, वह अनाथ-सा ही हो गया था. उसे अब तक किसी रिश्तेदार की शक्ल नहीं दिख पाई थी, लेकिन पिता के निधन पर सम्पत्ति हथियाने के इरादे से बहुत-से चतुर-चालाक चाचे-ताए-मामे सामने आ गए. उस भोलेभाले बच्चे को सहारा देने के दावों के साथ थोड़ी-थोड़ी करके उसकी सारी ज़मीन-सम्पत्ति आदि भी हड़प कर गए. अब वह सड़क पर आ गया था. उसने फिर भी हिम्मत नहीं हारी. जहां बाकी लोगों का अक्सर मानना होता है कि-
” इंसान कहता है, कि पैसा आए तो मैं कुछ करके दिखाऊं,
और पैसा कहता है, तू कुछ करके दिखा तो मैं आऊं .”
उसने दूसरी पंक्ति को ही तरज़ीह दी. टांगों से लाचार वह, एक मंदिर के बाहर बैठने लगा. गाना गाने का उसको बहुत शौक था. उसमें उसके सुरीले कंठ ने उसका पूरा साथ निभाया. उसने बहुत-से अच्छे-अच्छे लोकप्रिय भजन याद कर लिए थे. जब वह गाता था तो, सुनने वालों का मन मोह लेता था. लोग उसे कुछ-न-कुछ देकर ही जाते. कोई-कोई तो यह सोचकर कि, मंदिर तो रुपयों से भरा हुआ है, उनके चढ़ाने से तो अच्छा है कि, इसीके अर्पण कर दें. वह आंखें बंद करके सच्चे मन से गाता था, इसलिए एक तो उसके गाने में मधुरता का समावेश हो जाता था, दूसरे उसे कुछ पता भी नहीं लगता था, कि कोई कुछ और कितना चढ़ाता है. वह तो अंत में सब कुछ भगवान का प्रसाद समझकर समेटकर रख लेता. रोज़ अपने खाने-पीने का खर्चा निकालकर बाकी सहेजकर रख लेता था. उसका उसूल था कि,
“अपने आप को कभी परिस्थतियों का गुलाम मत समझो,
तुम खुद अपने भाग्य के विधाता हो.”
और सचमुच वह एक दिन भाग्य-विधाता बन गया, उस मंदिर के नवनिर्माण करने का. मंदिर नया भी हो गया और बड़ा भी. मंदिर की देखरेख के लिए पुजारी भी नियुक्त किए गए. इन सबके लिए अनवरत धन कहां से आता चला गया, उसे पता भी नहीं लगा. उसने न तो अपनी पुरानी भूमिका का त्याग ही किया और न ही मंदिर के नवनिर्माण में अपने सहयोग की कोई पट्टिका ही लगाई. उसका मानना था-
“जीवन में खतरों से खेलने से नहीं डरोगे, तो जीतोगे,
तथा सबसे आगे रहोगे और हारोगे, तो पथप्रदर्शक बनोगे.”
इसी में ही सच्चा आनंद निहित है. बहरहाल, मंदिर को देखकर आनंद बहुत आनंदित होता था ।
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