यह सभी जानते हैं कि मेरा गांव पयासी गंडक नदी के किनारे बसता है।नदी की छटा निराली है जिसे वे नही जानते समझते जो प्रकृति की इस नियामत से वंचित हैं।हम लोग तो मां के पेट मे ही तैरना सीख लेते हैं अभिमन्यु की तरह।इस मामले में मैं बड़ा दुस्साहसी हुआ करता था।जहां कोई नहो उतरा उस कुएं में कूद जाना, जैसे दुस्साहसी कारनामे पुराने लोगों में आज भी कहे सुने जाते हैं।
गांव के निवासियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपनी आजीविका के लिए नदी पर निर्भर था।इनमें धोबी और मल्लाह प्रमुख थे।यही कारण था कि इन सबकी कुटिया खतरनाक रूप से नदी तट के दीवाल पर ही खड़ी होती है परंतु गंगा मैया अपने इन सेवकों भक्तों को चढ़ान के दौरान भी किसी प्रकार की क्षति नही पहुंचाती थी।आबादी बढ़ाने में इनका योगदान बहुत था।लक्ष्मण मल्लाह तो 13 बेटा बेटी पैदा करने के बाद भी जवान ही थे।रात भर नदी के किनारे रहने के बावजूद इन्हें बुड़ुआ नही डुबाता था लेकिन इसका अपवाद भी है सुकई मल्लाह के दो बेटे एक ही तरह से नदी में डूब कर मरे।लोग तो यही कहते रहे कि इन्हें बुड़ुआ ने डुबाया लेकिन अब मैं समझता हूं कि अपने पूर्वजन्म में कई किसी भूल के कारण ये धरती पर आए था प्रारब्धानुसार गंगा मैया ने इन्हें मुक्ति दे दी।
मछली झींगा के अलावा नाव चलाना भी इनकी जीविका का प्रमुख स्रोत था।रास्ता चलते भी ये जाल बुनते रहते थे।घाट पार कराने के लिए चक्रानुक्रम में हर घर को हक़ मिलता था।एक मल्लाह था रामदरस जिसकी खासियत यह थी कि जब बाढ़ में उसका नंबर आता तो नाव डूबती जरूर थी।एक आंख न होने के कारण लोग उसे "कनवा" मल्लाह कहा करते मैं भी उसी नाव से पार करके पढ़ने जाया करता था और उधर से अपने खेत से हुए गेंहू के बोर एक एक लाता रहता था ।
कनवा मल्लाह की पारी थी नाव भरती जा रही थी।लेकिन शिवहर्ष मास्टर अभी नही आये थे उनके आये बिना नाव छूट नहो सकती थी।कनवा को भो कुशलता की दरकार थी नाव खोल दे तो उसकी क्या गत बने यह कनवा ,मास्टर साहब और भगवान के सिवा किसी को नही मालूम था।मास्टर साहब अपनो मस्ती में
खरामा खरामा देर से पहुंचे।वे स्कूल सबसे बाद में पहुंचने और सबसे जल्दी चल देने के पक्षधर थे।प्रिंसिपल साहब भी उनको कुछ नही कह सकते थे।
उनके पहुंचने तक नाव में तिल रखने को जगह नही थी।एक चेले ने उनकी साईकल सर पर उठा ली ।सरक सरक कर लोगो ने मास्टर साहब के किये जगह बनाई।नाव के जमीन पकड़ लिया था ।वह हिलाए न हिले।मैंने जगह की तंगी के कारण साईकल दाहिने हाथ मे पकड़ कर पानी मे लटका दिया नाव के किनारे गेहूं का बोरा किसी तरह नाव के किनारे समायोजित करके मैं उस बोरे के ऊपर ही खड़ा हो गया।नाव चलाने की कोशिश व्यर्थ हुई जा रही थी क्योंकि भार बढ़ जाने के कारण वह किनारे की जमीन पर बोझिल होकर चिपक गयी थी।जब सारे प्रयास व्यर्थ हो गए बाद कनवा एक मोटा बांस लेकर उतरा और उसे नाव के पेंदे में ढेल कर घुसा दिया।इसके बाद उसने बांस को खड़ा करना प्रारम्भ किया।नाव थोड़ी सी सरकी फिर तो कनवा ने नाव को ठेल ठाल कर नदी में उतार दिया।लोगों का बोझ बिल्कुल असंतुलित था।नाव एक ओर से नदी के भीतर समाने लगी।जब मेरा बोरा नदी में सरकने लगा तो पहले तो मैंने हाथ मे पकड़ी साईकल छोड़ दी ।वह नदी की गहराई में समा गई।इसके बाद गेंहू का बोरा सरकने लगा तो उसे बचाने के लिए मैं नदी में कूद गया।फिर भी बोरा मेरे ऊपर गिरा औऱ मुझे दबा कर तलहटी में ले गया।किसी तरह बोरे से पिंड छुड़ा कर मैं ऊपर आ गया।साईकल और बोरा जाते रहे।बाद में एक रस्सा मंगाया गया जिसे लेकर मैं नदी कि तलहटी में गया और पहले साईकल को उसमे बांध कर बाहर आया।रस्सा खींच कर साईकल निकली गयी।इसी रीति से बोरा भी बाहर किया।तब तक कनवा को लोगों ने बुरी तरह पीट दिया।
दो लोग फतिंगिया नाव से नदी पार जाने लगे।यह नाव ऐसी होती है कि जोर से सांस भी लो तो पलटी मार दे।ऐसे में किसी को यह कहने में ही मजा आया कि यह नाव अगर उलट जाय तो क्या आनद हो।दूसरे से नही सुना गया तो उसने झन्नाटेदार झापड़ रसीद कर दिया।अब एक युद्ध अलग से शुरू हो गया।
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