(1)..प्रथम तीर्थंकर :- भगवान आदिनाथ का जन्म चैत्र कृष्ण नौवीं के दिन सूर्योदय के समय हुआ। उन्हें ऋषभनाथ भी कहा जाता है। उन्हें जन्म से ही सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था। वे समस्त कलाओं के ज्ञाता और सरस्वती के स्वामी थे। युवा होने पर कच्छ और महाकच्छ की दो बहनों यशस्वती (या नंदा) और सुनंदा से ऋषभनाथ का विवाह हुआ।
नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बना। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (जैन धर्मावलंबियों की ऐसी मान्यता है)।
सुनंदा ने बाहुबली को जन्म दिया जिन्होंने घनघोर तप किया और अनेक सिद्धियां प्राप्त कीं। जैन समाज में आज उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। इस प्रकार आदिनाथ ऋषभनाथ सौ पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक दो पुत्रियों के पिता बने।
भगवान ऋषभनाथ ने ही विवाह-संस्था की शुरुआत की और प्रजा को पहले-पहले असि (सैनिक कार्य), मसि (लेखन कार्य), कृषि (खेती), विद्या, शिल्प (विविध वस्तुओं का निर्माण) और वाणिज्य-व्यापार के लिए प्रेरित किया। कहा जाता है कि इसके पूर्व तक प्रजा की सभी जरूरतों को क्लपवृक्ष पूरा करते थे। उनका सूत्र वाक्य था- ‘कृषि करो या ऋषि बनो।’
ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया फिर राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित करके दिगम्बर तपस्वी बन गए। उनके साथ सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया। जब कभी वे भिक्षा मांगने जाते, लोग उन्हें सोना, चांदी, हीरे, रत्न, आभूषण आदि देते थे, लेकिन भोजन कोई नहीं देता था।
इस प्रकार, उनके बहुत से अनुयायी भूख बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने अपने अलग समूह बनाने प्रारंभ कर दिए। यह जैन धर्म में अनेक सम्प्रदायों की शुरुआत थी।
जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं। अत: आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध है।
हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। इस प्रकार, एक हजार वर्ष तक कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे जिनेन्द्र बन गए।
पूर्णता प्राप्त करके उन्होंने अपना मौन व्रत तोड़ा और संपूर्ण आर्यखंड में लगभग 99 हजार वर्ष तक धर्म-विहार किया और लोगों को उनके कर्तव्य और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति पाने के उपाय बताए।
अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभनाथ हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए। वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।
(2).
दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी हैं। अजितनाथ जी का जन्म पवित्र नगरी अयोध्या के राजपरिवार में माघ के शुक्ल पक्ष की अष्टमी में हुआ था। इनके पिता का नाम जितशत्रु और माता का नाम विजया था। प्रभु अजितनाथ का चिह्न हाथी था।
अजितनाथ जन्म से ही वैरागी थे, लेकिन पिता की आज्ञानुसार उन्होंने पारिवारिक जीवन और राज्य का दायित्वों का भी वहन किया। कालान्तर में अपने चचेरे भाई को राज पाठ का भार सौंपकर अजितनाथ जी ने प्रवज्या ग्रहण की।
माघ शुक्ल नवमी के दिन उन्होंने दीक्षा प्राप्त की थी। इसके पश्चात बारह वर्षों की कड़ी साधना कर अजितनाथ जी को “केवल ज्ञान” की प्राप्ति हुई थी। धर्मतीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद पर विराजमान हुए। जैन मान्यतानुसार चैत्र मास की शुक्ल पंचमी के दिन ‘सम्मेद शिखर’ (सममेट शिखर) पर प्रभु अजितनाथ जी को निर्वाण प्राप्त हुआ।
(3). भगवान सम्भवनाथ जी, जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर हैं। प्रभु सम्भवनाथ का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल 15 तिथि को श्रावस्ती के नगरी राजा जितारि के घर हुआ था।
कहा जाता है कि एक बार क्षेमपुरी के राजा विपुलवाहन के राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। पानी की बूँद बूँद के लिये जनता तरस रही थी। राजा ने धान्य भंडार प्रजा के लिये खोल दिये और प्रजा की तृष्णा शांत करने लगे। बुरे समय में राजा कई बार बिना अन्न ग्रहण किए सो जाता और प्यासे कंठ से ही प्रभु की आराधना करता।
कुछ समय पश्चात राज्य में वर्षा हुई और बुरा समय खत्म हो गया, किन्तु प्रकृति का यह प्रकोप देखकर राजा का मन संसार से विरक्ति हो गया और अपने पुत्र को राज्य सौंपकर वह साधु बन गये। साधु विपुलवाह को मोक्ष प्राप्त हुआ और वहीं से श्रावस्ती नगरी में भगवान सम्भवनाथ के रूप में अवतरित हुए।
कहा जाता है कि महाराज सम्भवनाथ जी को संध्याकालीन बादलों को देखकर वैराग्य की प्रेरणा हुई। सम्भवनाथ जी ने राज्य के उत्तराधिकारी को राज्य का भार सौंपकर दीक्षा ग्रहण की। चौदह वर्षों की छदमस्थ साधना के पश्चात सम्भवनाथ जी ने केवल ज्ञान प्राप्त कर धर्मतीर्थ की स्थापना की और तीर्थंकर की सूची में शामिल हुए। प्रभु सम्भवनाथ ने चैत्र शुक्ल पंचमी को सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया।
(4). जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर भगवान अभिनन्दननाथ हैं। भगवान अभिनन्दननाथ जी को अभिनन्दन स्वामी के नाम से भी जाना जाता है।
अभिनन्दननाथ स्वामी का जन्म इक्ष्वाकु वंश में माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को हुआ था। अयोध्या में जन्मे अभिनन्दननाथ जी की माता सिद्धार्था देवी और पिता राजा संवर थे। इनका वर्ण सुवर्ण और चिह्न बंदर था। इनके यक्ष का नाम यक्षेश्वर और यक्षिणी का नाम व्रजशृंखला था। अपने पिता की आज्ञानुसार अभिनन्दननाथ जी ने राज्य का संचालन भी किया। लेकिन जल्द ही उनका सांसारिक जीवन से मोह भंग हो गया।
मान्यतानुसार माघ मास की शुक्ल द्वादशी को अभिनन्दननाथ जी को दीक्षा प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कठोर तप किया जिसके परिणामस्वरूप पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। जैन मतानुसार वैशाख शुक्ल की अष्टमी तिथि को सम्मेद शिखर पर भगवान अभिनन्दननाथ ने निर्वाण प्राप्त किया
(5). जैन धर्म के पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ हैं। सदैव अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश देने वाले सुमतिनाथ जी का जन्म वैशाख शुक्ल अष्टमी को मघा नक्षत्र में अयोध्या नगरी में हुआ था। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य इक्ष्वाकु वंश के राजा मेघप्रय और रानी सुमंगला को मिला। प्रभु के शरीर का वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) था और इनका चिह्न चकवा था। प्रभु सुमतिनाथ के यक्ष, यक्षिणी का नाम तुम्बुरव, वज्रांकुशा था।
युवावस्था में भगवान सुमतिनाथ ने वैवाहिक जीवन संवहन किया। प्रभु सुमतिनाथ जी ने राजपद का पुत्रवत पालन किया। पुत्र को राजपाट सौंप कर भगवान सुमतिनाथ ने वैशाख शुक्ल नवमी को एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा अंगीकार की।
बीस वर्षों की साधना के उपरांत भगवान सुमतिनाथ ने ‘कैवल्य’ प्राप्त कर चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की और तीर्थंकर पद पर आरूढ़ हुए। असंख्य मुमुक्षुओं के लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त करके चैत्र शुक्ल एकादशी को ही सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त किया।
(6). छठे तीर्थंकर हैं श्री पद्मप्रभ जी । भगवान पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी नगर के इक्ष्वाकु वंश में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष द्वादशी को चित्रा नक्षत्र में हुआ था। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य राजा धरणराज और सुसीमा देवी को प्राप्त हुआ। प्रभु पद्मप्रभ के शरीर का वर्ण लाल और चिह्न कमल था। पद्म लक्षण से युक्त होने के कारण प्रभु का नाम ‘पद्मप्रभ’ रखा गया।
एक राजवंशी परिवार में जन्में पद्मप्रभ जी ने तीर्थंकर बनने से पहले वैवाहिक जीवन और एक राजा के दायित्व का जिम्मेदारी से निर्वाह किया। समय आने पर अपने पुत्र को राजपद प्रदान करके उन्होंने कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के पावन दिन दीक्षा प्राप्त की।
छह माह की तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन की प्राप्ति हुई। उन्होंने ही चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करके प्रभु ने संसार के लिए कल्याण का द्वार खोल दिये। जीवन के अन्त में मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी के दिन सम्मेद शिखर पर प्रभु ने निर्वाण पद प्राप्त किया
(7)सातवें तीर्थंकर भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी का जन्म वाराणसी के इक्ष्वाकुवंश में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में हुआ था. इनके माता का नाम माता पृथ्वी देवी और पिता का नाम राजा प्रतिष्ठ था. इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था और इनका चिन्ह स्वस्तिक था. इनके यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम शांता देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के मतानुसार भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी के कुल गणधरों की संख्या 95 थी, जिनमें विदर्भ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी तिथि को वाराणसी में ही इन्होनें दीक्षा प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के 2 दिन बाद इन्होनें खीर से प्रथम पारणा किया. दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 9 महीने तक कठोर तप करने के बाद फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी को धर्म नगरी वाराणसी में ही शिरीष वृक्ष के नीचे इन्हें कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी. भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी ने हमेशा सत्य का समर्थन किया और अपने अनुयायियों को अनर्थ हिंसा से बचने और न्याय के मूल्य को समझने का सन्देश दिया.
फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी के दिन भगवान श्री सुपार्श्वनाथ ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त किया था.
(8).
चन्द्रप्रभ प्रभु आठवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध है। चन्द्रप्रभ जी का जन्म पावन नगरी काशी जनपद के चन्द्रपुरी में पौष माह की कृष्ण पक्ष द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र में हुआ था। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य राजा महासेन और लक्ष्मणा देवी को मिला। इनके शरीर का वर्ण श्वेत (सफ़ेद) और चिह्न चन्द्रमा था।
चन्द्रप्रभ जी ने भी अन्य तीर्थंकरों की तरह तीर्थंकर होने से पहले राजा के दायित्व का निर्वाह किया। साम्राज्य का संचालन करते समय ही चन्द्रप्रभ जी का ध्यान अपने लक्ष्य यानि मोक्ष प्राप्त करने पर स्थिर रहा। पुत्र के योग्य होने पर उन्होंने राजपद का त्याग करके प्रवज्या का संकल्प किया।
एक वर्ष तक वर्षीदान देकर चन्द्रप्रभ जी ने पौष कृष्ण त्रयोदशी को प्रवज्या अन्गीकार की। तीन माह की छोटी सी अवधि में ही उन्होंने फ़ाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवली ज्ञान को प्राप्त किया और धर्मतीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद उपाधि प्राप्त की।
(9).नौवें तीर्थंकर पुष्पदन्त जी हैं। भगवान पुष्पदन्त जी का जन्म काकांदी नगर में कृष्ण पक्ष की पंचमी को मूल नक्षत्र में हुआ था। पुष्पदंत जी एक युवा तीर्थंकर थे।
इक्ष्वाकु वंश के राजा सुग्रीव और रामा देवी के घर जन्मे पुष्पदंत जी के जन्म का नाम ‘सुवधि’ ही रखा था, इसलिए भगवान पुष्पदन्त को ‘सुवधिनाथ’ भी कहा जाता है। पुष्पदन्त जी के शरीर का वर्ण श्वेत (सफ़ेद) और इनका चिह्न मकर (मगर) था। एक सामान्य राजा का जीवन बिताने के बाद तीर्थंकर पुष्पदन्त जी ने आत्मकल्याण के पथ पर जाने का निश्चय किया।
वर्षीदान द्वारा जनता की सेवा कर, मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी के दिन भगवान ने दीक्षा स्वीकार की। चार माह की साधना कर कैवल्य पद प्राप्त कर प्रभु पुष्पदंत जी ने धर्मतीर्थ की स्थापना की। भाद्र शुक्ल पक्ष नवमी को पुष्पदंत जी ने साधना अवस्था में शेष अघाती कर्मों को नष्ट कर सम्मेद शिखर पर निर्वाण पद प्राप्त किया।
(10). शीतलनाथ जी दसवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध हैं। भगवान शीतलनाथ का जन्म माघ मास कृष्ण पक्ष की द्वादशी को पूर्वाषाड़ नक्षत्र में भद्रिकापुर में इक्ष्वाकु वंश के राजा दृढ़रथ की पत्नी माता सुनंदा के गर्भ से हुआ था। इनका वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न ‘वत्स’ था।
प्रभु शीतलनाथ जब मात्र गर्भ में थे, तब महाराज दृढ़रथ को बुखार हुआ था। उनका शरीर ताप से जलने लगा था। जब समस्त उपचार विफल हो गए तब महारानी के मात्र स्पर्श से महाराज बुखार से मुक्त हो गए। महाराज ने इसे अपनी होने वाली सन्तान का प्रभाव माना। फलस्वरूप नामकरण के प्रसंग पर उक्त घटना का वर्णन करते हुए महाराज ने अपने पुत्र का ‘शीतलनाथ’ रखा।
पिता से दीक्षा लेने के उपरांत उन्होंने वर्षों तक प्रजा का पुत्रवत सेवा व पालन किया। लेकिन जल्द ही उनका इस संसार से मोह त्याग हो गया। भोगावली कर्म समाप्त हो जाने पर माघ कृष्ण द्वादशी के दिन शीतलनाथ ने श्रामणी दीक्षा अंगीकार की। तीन माह के तप व ध्यान के बाद प्रभु शीतलनाथ जी ने केवलज्ञान व केवलदर्शन को प्राप्त किया। इस दिन ‘कैवल्य’ महोत्सव मनाया जाता है।
प्रभु शीतलनाथ जी चतुर्विध तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर पद पर विराजमान हुये। वैशाख कृष्णा द्वितीया को सम्मेद शिखर से नश्वर देह का विसर्जन कर निर्वाण पद हासिल किया
(11).
श्रेयांसनाथ ग्यारहवें तीर्थंकर हैं। श्रेयांसनाथ जी का जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को श्रवण नक्षत्र में सिंहपुरी में हुआ था। प्रभु के माता पिता बनने का सौभाग्य इक्ष्वाकु वंश के राजा विष्णुराज व पत्नी विष्णु देवी को प्राप्त हुआ था। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न गेंडा था।
श्रेयांसनाथ जी शुरु से ही वैरागी थे। लेकिन माता-पिता की आज्ञानुसार उन्होंने गृहस्थ जीवन को भी अपनाया और राजसी दायित्व को भी निभाया। श्रेयांसनाथ जी के शासनकाल के दौरान राज्य में सुख समृद्धि का विस्तार हुआ। लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बना वैराग्य धारण कर लिया।
जैन धर्मानुसार ऋतुओं का परिवर्तन देखकर भगवान को वैराग्य हुआ। ‘विमलप्रभा’ पालकी पर विराजमान होकर मनोहर नामक उद्यान में पहुँचे और फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। दो माह तक प्रभु छ्दमस्थ साधक की भुमिका में रहे। माघ कृष्ण अमावस्या के दिन प्रभु केवली बने। श्रावण कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को प्रभु श्रेयांसनाथ ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण किया।
(12). बारहवें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य हैं। प्रभु वासुपूज्य का जन्म चम्पापुरी में इक्ष्वाकु वंश के महान राजा वासुपूज्य की पत्नी जया देवी के गर्भ से फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में हुआ था। इनके शरीर का वर्ण लाल था।
वसुपूज्य जन्म से ही वैरागी थे, इसलिए इन्होने वैवाहिक प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया। राजपद से इंकार कर, साधारण जीवन व्यतीत किया। फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को प्रभु वासुपूज्यनाथ जी ने प्रवज्या में प्रवेश किया। एक माह की छदमस्थ साधना द्वारा माघ शुक्ल द्वितीय को ‘केवली’ उपाधि प्राप्त की। मनोहर उद्यान में भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी के दिन चौरानवे मुनियों के साथ भगवान वासुपूज्यनाथ जी को मोक्ष प्राप्त हुआ था।
प्रभु वासुपूज्यनाथ जी हिंसा के निंदक थे। उनका मानना था कि अपने स्वार्थ के लिए अनेकों मूक पशुओं की बलि चढ़ाना अज्ञानपूर्ण एवं क्रूरतापूर्ण कार्य है। यह प्रतिबन्ध होना चाहिए। ईश्वर इस हिंसक कार्य से खुश नहीं होते क्योंकि ईश्वर तो प्रेम प्रवाह से प्रसन्न होते हैं, न कि रक्त प्रवाह से।
(13).श्री विमलनाथ जी के तेरहवें तीर्थंकर हैं। प्रभु विमलनाथ जी का जन्म माघ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भाद्रपद नक्षत्र में कम्पिला में हुआ। विमलनाथ जी के शरीर का रंग सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न शूकर था।
कालक्रम के अनुसार विमलनाथ जी ने राजपद का दायित्व भी निभाया। दीक्षावन में जामुन वृक्ष के नीचे तीन वर्ष तक ध्यानारूढ़ होकर भगवान, माघ शुक्ल षष्ठी के दिन केवली हो गये। अन्त में सम्मेद शिखर पर जाकर एक माह का योग निरोध कर आठ हजार छह सौ मुनियों के साथ आषाढ़ कृष्ण अष्टमी के दिन निर्वाण प्राप्त किया।
(14). भगवान अनन्तनाथ चौदहवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध हैं। अनन्तनाथ जी ने जीवनभर सत्य और अहिंसा के नियमों का पालन किया और जनता को भी सत्य पर चलने की राह दी।
अनन्तनाथ जी का जन्म वैशाख के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को रेवती नक्षत्र में पवित्र नगरी अयोध्या के पास में इक्ष्वाकु वंश के राजा सिंहसेन की पत्नी सुयशा देवी के गर्भ से हुआ था। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण और इनका चिह्न बाज था।
धर्म के निर्वाह के लिए पाणिग्रहण संस्कार स्वीकार किया। पिता के पश्चात राज्य का संचालन भी किया। जिस प्रकार कमल कीचड़ मे जन्म लेकर भी उसकी गंदगी से दूर रहता है ठीक उसी प्रकार प्रभु भी संसार के दायित्वों को वहन करते हुए भी मोह माया से मुक्त रहे।
जीवन के उत्तर पक्ष में उत्तराधिकारी को राज्य में स्थापित कर वैशाख कृष्ण चतुर्दशी के दिन अनन्तनाथ मोक्ष के पथ पर बढ़ चले। पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए तथा ‘कैवल्य’ प्राप्त किया। धर्मोपदेश माध्यम द्वारा तीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद प्राप्त किया और अंत में चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन सम्मेद शिखर पर्वत से प्रभु ने मोक्ष प्राप्त किया।
(15). धर्मनाथ जी पन्द्रहवें तीर्थंकर हैं। समस्त कर्मों का निर्वाह कर उन्होंने कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की और वर्षों तक जनता में अहिंसा और सत्य का संदेश दिया।
धर्मनाथ जी का जन्म रत्नपुरी के इक्ष्वाकु वंश के राजा भानु की पत्नी माता सुव्रतादेवी के गर्भ से माघ के शुक्ल पक्ष की तृतीया को पुष्य नक्षत्र में हुआ था। धर्मनाथ के यक्ष, यक्षिणी किन्नर और कंदर्पा देवी थे। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न वज्र था।
राजा भानु ने धर्मनाथ जी को राजगद्दी का कार्य भार सौंपा था। धर्मनाथ जी के शासन में अधर्म का नाश हुआ। उन्हें एक प्रिय शासक के रूप में भी याद किया जाता है।
कालान्तर में राजपद का त्याग कर उत्तराधिकारी को सौंपा। माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन श्री धर्मनाथ जी ने प्रवज्या व आत्मसाधना में प्रवेश किया। देव निर्मित नागदत्ता पालकी में बैठकर शालवन के उद्यान में पहुँचे, जहां माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। दो वर्ष की छदमस्थ साधना कर पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्रभु केवली बने साथ ही धर्मतीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर कहलाए। ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन सम्मेद शिखर पर्वत पर प्रभु ने निर्वाण किया।
(16).श्री शान्तिनाथ प्रभु जैन धर्म के 16वें तीर्थंकर हैं जिनका जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को भरणी नक्षत्र में हस्तिनापुर के इक्ष्वाकु वंश में हुआ। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य राजा विश्वसेन व उनकी धर्मपत्नी अचीरा को प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार शान्तिनाथ, भगवान के अवतार थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में शान्ति व अहिंसा से प्रजा की सेवा की। प्रभु के शरीर का वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न मृग (हिरन) था।
पिता की आज्ञानुसार भगवान शान्तिनाथ ने राज्य संभाला। पिता के पश्चात भगवान शान्तिनाथ ने राजपद संभालते हुए विश्व को एक सूत्र में पिरोया। पुत्र नारायण को राजपाट सौंपकर भगवान शान्तिनाथ ने प्रवज्या अंगीकार की। प्रभु शान्तिनाथ ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को दीक्षा प्राप्त की। बारह माह की छ्दमस्थ अवस्था की साधना से प्रभु ने पौष शुक्ल नवमी को ‘कैवल्य’ प्राप्त किया साथ ही धर्मतीर्थ की रचना कर तीर्थंकर पद पर विराजमान हुए। ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन सम्मेद शिखर पर भगवान शान्तिनाथ ने मोक्ष प्राप्त किया।
(17). सत्रहवें तीर्थंकर भगवान श्री कुंथुनाथ का जन्म हस्तिनापुर के इक्ष्वाकुवंश के राजा सूर्य की धर्मपत्नी माता श्रीदेवी के गर्भ से वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को कृत्तिका नक्षत्र में हुआ था। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था और इनका चिन्ह बकरा था। इनके यक्ष का नाम गन्धर्व था और यक्षिणी का नाम बला देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान श्री कुंथुनाथ जी के गणधरों की कुल संख्या 35 थी, जिनमें सांब स्वामी इनके प्रथम गणधर थे।
वैशाख कृष्णपक्ष पंचमी को भगवान श्री कंठुनाथ जी ने हस्तिनापुर में दीक्षा ग्रहण की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद इन्होंने खीर से प्रथम पारणा किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 16 वर्ष तक कठोर तप करने के बाद भगवान श्री कंठुनाथ जी को चैत्र शुक्ल पक्ष के तृतीया को हस्तिनापुर में ही तिलक वृक्ष के नीचे कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
सत्य और अहिंसा के साथ कई वर्षों तक साधक जीवन बिताने के बाद वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को सम्मेद शिखर पर भगवान श्री कंठुनाथ जी ने निर्वाण को प्राप्त किया।
(18).अठारहवें तीर्थंकर भगवान श्री अरनाथ जी हैं। जिनका जन्म हस्तिनापुर के इक्ष्वाकुवंश में मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष दशमी को रेवती नक्षत्र में हुआ था. इनके माता का नाम माता मित्रा देवी रानी और पिता का नाम राजा सुदर्शन था. बचपन में इनका नाम अर कुमार था. इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था जबकि इनका चिन्ह मछली था. इनके यक्ष का नाम यक्षेन्द्र और यक्षिणी का नाम धारिणी देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार इनके गणधरों की कुल संख्या 33 थी, जिनमें कुम्भ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. भगवान श्री अरनाथ जी ने मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था. दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 3 वर्ष तक कठोर तप करने के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी को हस्तिनापुर में ही आम के वृक्ष के नीचे भगवान श्री अरनाथ जी को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी.
मार्गशीर्ष मास के दशमी तिथि को भगवान श्री अरनाथ जी ने सम्मेद शिखर पर एक हज़ार साधुओं के साथ निर्वाण को प्राप्त किया था.
(19). उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ जी का जन्म मिथिला के इक्ष्वाकुवंश में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष एकादशी को अश्विन नक्षत्र में हुआ था। इनके माता का नाम माता रक्षिता देवी और पिता का नाम राजा कुम्भराज था। इनके शरीर का वर्ण नीला था जबकि इनका चिन्ह कलश था। इनके यक्ष का नाम कुबेर और यक्षिणी का नाम धरणप्रिया देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान श्री मल्लिनाथ जी स्वामी के गणधरों की कुल संख्या 28 थी, जिनमें अभीक्षक स्वामी इनके प्रथम गणधर थे।
भगवान श्री मल्लिनाथ जी ने मिथिला में मार्गशीर्ष माह शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 1 दिन-रात तक कठोर तप करने के बाद भगवान श्री मल्लिनाथ जी को मिथिला में ही अशोक वृक्ष के नीचे कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
भगवान श्री मल्लिनाथ जी ने हमेशा सत्य और अहिंसा का अनुसरण किया और अनुयायियों को भी इसी राह पर चलने का सन्देश दिया। फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को 500 साधुओं के संग इन्होनें सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त किया था।
(20).. बीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी स्वामी का जन्म राजगृह के हरिवंश कुल में ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को श्रवण नक्षत्र में हुआ था. इनके माता का नाम माता पद्मावती देवी और पिता का नाम राजा सुमित्रा था. इनके शरीर का वर्ण श्याम वर्ण था जबकि इनका चिन्ह कछुआ था. इनके यक्ष का नाम वरुण था और यक्षिणी का नाम नरदत्ता देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार इनके गणधरों की कुल संख्या 18 थी, जिनमें मल्लि स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी स्वामी ने राजगृह में फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वादशी को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था. दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 11 महीने तक कठोर तप करने के बाद फाल्गुन कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी स्वामी ने राजगृह में ही चम्पक वृक्ष के नीचे कैवल्यज्ञान की प्राप्ति की थी.
कई वर्षों तक सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने के बाद भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी स्वामी ने एक हज़ार साधुओं के साथ सम्मेद शिखर पर ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को निर्वाण को प्राप्त किया था.
(21).इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान श्री नमिनाथ जी का जन्म मिथिला के इक्ष्वाकुवंश में श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को अश्विनी नक्षत्र में हुआ था। इनके माता का नाम माता विप्रा रानी देवी और पिता का नाम राजा विजय था। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था जबकि इनका चिह्न नीलकमल था। इनके यक्ष का नाम भृकुटी और यक्षिणी का नाम गांधारी देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान श्री नमिनाथ जी के गणधरों की कुल संख्या 17 थी, जिनमें शुभ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। इनके प्रथम आर्य का नाम अनिला था।
अषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को भगवान श्री नमिनाथ जी ने मिथिला में दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होंने प्रथम पारणा किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 9 महीने तक कठोर तप करने के बाद भगवान श्री नमिनाथ को मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मिथिला में ही बकुल वृक्ष के नीचे कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
भगवान श्री नमिनाथ वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को सम्मेद शिखर पर 536 साधुओं के साथ निर्वाण को प्राप्त किए थे।
(22). बाइसवें तीर्थंकर भगवान श्री नेमिनाथ जी का जन्म सौरीपुर द्वारका के हरिवंश कुल में श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को चित्रा नक्षत्र में हुआ था. इनके माता का नाम माता शिवा देवी था और पिता का नाम राजा समुद्रविजय था. इनके शरीर का रंग श्याम वर्ण था जबकि चिन्ह शंख था. इनके यक्ष का नाम गोमेध और यक्षिणी का नाम अम्बिका देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान श्री नेमिनाथ जी के गणधरों की कुल संख्या 11 थी, जिनमें वरदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. इनके प्रथम आर्य का नाम यक्षदिन्ना था. भगवान श्री नेमिनाथ ने सौरीपुर में श्रावण शुक्ला पक्ष षष्ठी को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था. भगवान श्री नेमिनाथ जी ने दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 54 दिनों तक कठोर तप करने के बाद गिरनार पर्वत पर मेषश्रृंग वृक्ष के नीचे आसोज अमावस्या को कैवल्यज्ञान को प्राप्त किया था. कथानुसार भगवान नेमिनाथ जब राजा उग्रसेन की पुत्री राजुलमती से विवाह करने पहुंचे तो वहां उन्होंने उन पशुओं को देखा जो कि बारातियों के भोजन हेतु मारे जाने वाले थे. यह देखकर उनका हृदय करूणा से व्याकुल हो उठा और उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया. तभी वे विवाह का विचार छोड़कर तपस्या को चले गए थे.
700 साल तक साधक जीवन जीने के बाद आषाढ़ शुक्ल अष्टमी को भगवान श्री नेमिनाथ जी ने एक हज़ार साधुओं के साथ गिरनार पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त किया था.
(23).तेइसवें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ जी का जन्म बनारस के इक्ष्वाकुवंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में हुआ था। इनके माता का नाम माता वामा देवी था और पिता का नाम राजा अश्वसेन था। इनके शरीर का वर्ण नीला था जबकि इनका चिह्न सर्प है। इनके यक्ष का नाम पार्श्व था और इनके यक्षिणी का नाम पद्मावती देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान श्री पार्श्वनाथ जी के गणधरों की कुल संख्या 10 थी, जिनमें आर्यदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। इनके प्रथम आर्य का नाम पुष्पचुड़ा था।
भगवान पार्श्वनाथ जी ने पौष कृष्ण पक्ष एकादशी को बनारस में दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था। भगवान श्री पार्श्वनाथ जी 30 साल की अवस्था में सांसारिक मोहमाया और गृह का त्याग कर संन्यासी हो गए थे और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 84 दिन तक कठोर तप करने के बाद चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्थी को बनारस में ही घातकी वृक्ष के नीचे इन्होंने कैवल्यज्ञान को प्राप्त किया था।
भगवान श्री पार्श्वनाथ जी ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् 70 वर्षों तक धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लोगों को सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने का सन्देश दिया और फिर 33 साधुओं के साथ श्रावण शुक्ल पक्ष की अष्टमी को सम्मेद शिखर पर इन्होंने निर्वाण को प्राप्त किया।
(24). जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी का जन्म कुंडलपुर वैशाली के इक्ष्वाकुवंश में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। इनके माता का नाम माता त्रिशला देवी था और पिता का नाम राजा सिद्धार्थ था।
बचपन में इनका नाम वर्धमान था लेकिन बाल्यकाल से ही वह साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यंत बलशाली होने के कारण वे महावीर कहलाए। भगवान महावीर ने अपने इन्द्रियों को जीत लिया जिस कारण इन्हें जीतेंद्र भी कहा जाता है। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था और इनका चिन्ह सिंह था। इनके यक्ष का नाम ब्रह्मशांति और यक्षिणी का नाम सिद्धायिका देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान महावीर के गणधरों की कुल संख्या 11 थी, जिनमें गौतम स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। भगवान महावीर ने मार्गशीर्ष दशमी को कुंडलपुर में दीक्षा की प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 12 वर्ष 6।5 महीने तक कठोर तप करने के बाद वैशाख शुक्ला दशमी को ऋजुबालुका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे भगवान महावीर को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात् मूर्ति थे। वे सभी के साथ सामान भाव रखते थे और किसी को कोई भी दुःख देना नहीं चाहते थे। अपनी श्रद्धा से जैन धर्म को पुनः प्रतिष्ठापित करने के बाद कार्तिक अमावस्या दीपावली के दिन पावापुरी में भगवान महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया था।
@veganomics
@mehta sir... सर आपकी हिंदी वाली पोस्ट को देखने से मुजे भी अब हिंदी मे पोस्ट करना अच्छा लगता है ... कृपया मेरे साथ देजिये
जय जिनेन्द्र सा.
क्या बात है @latest-update आपकी पोस्ट तो छा गई है, बहुत ही अच्छे.
आपने एक बहुत ही बढ़िया एवं मेहनत करके पोस्ट डाली है.
बस ऐसे ही हिंदी में पोस्ट करते रहिए.
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit
बहुत-बहुत धन्यवाद आप लोगों का ऐसा ही सपोर्ट रहा तो मैं और पोस्ट भी डालता रहूंगा
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit
Great collection
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit
Thanks..
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit
Expert: a man who makes three correct guesses consecutively.
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit
Pls resteem my post... I requested to all
.. 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit
Very Good Article Dear....
Please Upvote, Folow and comment my post....
@durendra
I will do same for you..
Downvoting a post can decrease pending rewards and make it less visible. Common reasons:
Submit