ताज़ा ग़ज़ल अहबाब की नज़्र....WRITTEN BY MY LOVING BROTHER
जैसे-जैसे ज़ख़्म पुराना पड़ता है ।
दर्द से दिल को रब्त बनाना पड़ता है ।
जैसा भी हो जिस पर दिल आ जाता है ,
फिर उससे हर हाल निभाना पड़ता है ।
बच्चों की ज़िद पर कुछ ज़ोर नहीं चलता ,
आख़िर ख़ुद को ही समझाना पड़ता है ।
मँहगाई के दौर में ख़्वाहिश मत पूछो ,
जैसे-तैसे घर को चलाना पड़ता है ।
कोई भी मुश्क़िल आसान नहीं होती ,
मुश्क़िल को आसान बनाना पड़ता है ।
गीत ग़ज़ल कहना इतना आसान नहीं ,
अपने लहू में रोज़ नहाना पड़ता है ।
सच है यही 'नादान' कि सब को दुनियाँ में ,
ख़ुद ही अपना बोझ उठाना पड़ता है ।
राकेश 'नादान'