हमारे पास रहने को एक दुनिया है. एक ही दुनिया. मगर ये दुनिया हमारी बपौती नहीं. बस हम ही नहीं, जिनका इस दुनिया पर हक हो. ये दुनिया जानवरों की भी है. पेड़-पौधों की भी है. उतनी ही, जितनी हमारी है. मगर इसका चप्पा-चप्पा हम इंसानों ने आपस में बांट लिया है. कहीं हमारे घर हैं. कहीं दफ्तर. कहीं खेत. कहीं कारखाने. जंगल में जानवर रहते थे. उन जंगलों को भी हमने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया. काटते गए. हमारी आबादी लगातार बढ़ती जा रही है. जानवरों की गिनती लगातार घटती जा रही है. हमारा होना उनकी सजा बन गया है. नदियों-झीलों और समुद्रों को हमने गंदा किया. हवा गंदी कर दी. बेचारे जानवर हमारे किए की सजा भुगत रहे हैं. उनके होने पर सवाल लग गया है. मगर हम इंसान इतने पर ही नहीं रुकते. और भी कई तरीकों से जानवरों को सताते हैं. उनको मारते हैं. ये तस्वीर देखिए. आपके रौंगटे खड़े हो जाएंगे. ये हम इंसानों की हैवानियत का एक छोटा सा नमूना है.
तस्वीर देखकर उलझन हुई ना. मुझे भी हुई. तस्वीर पश्चिम बंगाल के बंकुरा जिले की है. साफ दिख रहा है कि कैसे एक भीड़ हथिनी और उसके बच्चे की जान लेने पर तुली है. बच्चे के आग लगी हुई है और वो अपनी मां के पीछे-पीछे भाग रहा है. इसको खींचने वाले बिप्लब हजरा को वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर ऑफ द ईयर का अवॉर्ड दिया गया है. तस्वीर का नाम और मारक है- हेल इज हेयर (Hell is here). माने यही नर्क है. मुंबई की सैंचुरी नेचर फाउंडेशन ने ये अवॉर्ड दिया है. इसमें 4000 से ज्यादा एंट्रीज आईं थीं.
टाइगर को बचाने की मुहिम चलने के बावजूद उनके मारे जाने की घटनाएं कम नहीं हो रही हैं.
अखबारों-चैनलों में आए दिन देखने को मिलता है, फलानी जगह फलाना जानवर लोगों ने मार गिराया. इंसान और जंगल की इस लड़ाई में विजेता हमेशा इंसान को दिखाया जाता है. पर असल में हम हार रहे हैं. हर साल देश में औसतन 80 हाथी इस लड़ाई में मार दिए जाते हैं. पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ें बताते हैं कि पिछले 8 साल में ही करीब 655 हाथी मार डाले गए. किसी को भीड़ ने मारा, कोई एक्सीडेंट में मरा तो कोई बिजली का करंट खाकर. एलिफैंट सेंसस 2017 में भी चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए थे. इसके मुताबिक 2012 के मुकाबले 10 फीसदी हाथी कम हो गए थे. पांच साल में हाथियों की संख्या 30 हजार से 27 हजार के करीब रह गई थी.
58% वाइल्डलाइफ स्पिसीज खत्म हो गईं
ये तो बात हाथियों को हो गई. और जानवरों की हालत भी अपने देश में कुछ अच्छी नहीं है. लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2016 में पाया गया था कि आधी से ज्यादा वाइल्डलाइफ स्पीसीज अपने यहां खत्म होने की स्थिति में हैं. रिपोर्ट में पाया गया था कि देश में 1970 से 2012 के बीच 58% कुल वाइल्डलाइफ स्पिसीज खत्म हो गईं. इनके खात्मे के पीछे कम होते जंगलों के अलावा एक और बड़ा कारण मिला है. गंदा पानी. पाया गया कि करीब 70% पानी के स्रोत प्रदूषित हो चुके हैं. रही ग्राउंड वॉटर की बात तो 60% जगहों पर अगले एक दशक के अंदर वो भी नहीं बचेगा. ये दावा वर्ल्ड वाईड फंड(WWF)की एक रिपोर्ट में किया गया है. प्रदूषित होते पानी के पीछे इंडस्ट्री और म्यूनिसिपल वेस्ट है. रही बात साफ-सफाई की तो गंगा सफाई का हाल ही देख लो. तीन साल तक केवल गंगा आरती होती गई. बाद में मंत्री बदल दिया गया. उमा भारती की जगह नितिन गडकरी जिम्मेदारी मिली है. अब भी गंगा आरती कायदे से चल रही है.
राष्ट्रीय पक्षी मोर की हालत भी दयनीय है.
स्टेट ऑफ इंडियाज इन्वायरमेंट 2017 नाम की एक बुक के मुताबिक, देश में 2014 और 2016 के बीच जानवरों के शिकार की घटनाओं में 52% का इजाफा हुआ है. बाकी छोड़िए केवलअपने नैशनल एनिमल और बर्ड की ही बात कर लेते हैं. 2016 में 50 से ज्यादा टाइगर्स के मारे जाने का आंकड़ा बताया जाता है जोकि पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा है. वहीं अगर पिकॉक यानी मोर की बात करें तो 2015-16 के बीच 340 मोर मारे जाने की खबर है.
अवैध तस्करी पर सख्त नियम जरूरी
जानवरों की तस्करी की घटनाएं अकसर सामने आती रहती हैं.
इन जानवरों के मारे जाने के पीछे एक बड़ा कारण व्यापार भी है. जानवरों की खाल से लेकर नाखून तक बिकता है. इंटरनैशनल मार्केट में तो और भी डिमांड होती है. पैसा भी ज्यादा मिलता है. यही कारण है कि देश में अवैध तस्करी धड़ल्ले से हो रही है. फिर ये तस्करी रोकने को सख्त नियम भी नहीं हैं. इसका अंदाजा एक केस से लगा लीजिए. मध्य प्रदेश में एक गैंग के द्वारा 125 टाइगर्स और 1200 लेपर्ड की तस्करी करने का मामला सामने आया था. मामले में अक्टूबर 2017 में चार लोगों को सजा सुनाई गई. वो भी महज चार साल कैद की. करोड़ों के वारे-न्यारे करने वालों पर 10 हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया. अब बताइये इतनी कम सजा होगी तो कैसे रुकेगा ये तस्करी का खेल. सरकार को इस पर सख्ती करनी ही होगी.
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