संपादक, दैनिक भास्कर के नाम खुला-पत्र

in vegan •  7 years ago  (edited)

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सन्दर्भ: दैनिक भास्कर में आज प्रकाशित उपरोक्त खबर

(http://epaper.bhaskar.com/detail/107833/06240306400824/0/map/tabs-1/2018-06-24%2000:00:00/18/6/image/)

दिनांक:24 जून, 2018

सेवा में,
संपादक महोदय,
दैनिक भास्कर
उदयपुर।

विषय: आपके प्रतिष्ठित पत्र के आज के संस्करण में प्रकाशित “फिश एक्वेरियम” पर किये एक-तरफ़ा कवरेज से शहर के एनीमल एक्टिविस्ट्स आहत।

महोदय,
आपके प्रतिष्ठित पत्र में “फिश एक्वेरियम” के बढ़ते चलन पर किये एक-तरफ़ा कवरेज को देख शहर के एनीमल एक्टिविस्ट्स में रोष है।

हालाँकि, यह बात बिलकुल सच है कि शहर में विशाल सार्वजानिक फिश एक्वेरियम की स्थापना के बाद इस उद्योग में एकदम तेजी आई है। किंतु जीते-जागते सजीव प्राणियों को कैद करने वाले कुकृत्य को खूबसूरती बढाने वाली गतिविधि के रूप में दर्शाना हमारे मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों की अवहेलना है। ऐसे कवरेज में इसके दूसरे और अधिक महत्वपूर्ण पक्ष को भी उजागर करना आवश्यक है।

एक्वेरियम व्यवसाय के कड़वे और क्रूर पहलू:


एक्वेरियम व्यवसाय के कड़वे और क्रूर पहलू से जुड़े कुछ तथ्य भी साथ में दिए जाते तो बेहतर रहता। ज्ञात हो कि अस्सी फीसदी मछलियाँ एक्वेरियम तक पहुँचने से पहले ही मर जाती है। 90% तक मछलियाँ एक्वेरियम में रखे जाने पर अपने जीवन का एक वर्ष भी पूरा नहीं कर पाती है और उसका दम घुट जाता है। शेष बची मछलियाँ भी कभी भी अपना सहज प्राकृतिक जीवन नहीं जी पाती है। एक पारदर्शी कांच के डिब्बे में कैद, लगातार दर्शकों के बीच कृत्रिम रोशनी, तापमान, वायुदाब, ऑक्सीजन स्तर, शोरगुल इत्यादि से वह सहमी रहती है और अपना पूरा जीवन ही तनाव में जीती है।

एक्वेरियम संस्कृति भारतीय संस्कृति के खिलाफ है:


एक्वेरियम को रखने के पीछे यह तर्क देना कि यह शान्ति का प्रतीक है, सरासर गलत है। इसके उलट ये “शांतिपूर्ण जीवों की तनावग्रस्त जिन्दगी का भद्दा प्रदर्शन” है। बल्कि एक्वेरियम को निहारने वाले दरअसल उन प्राणियों की मौत के नाच को देख आनंदित होते हैं। नि:संदेह, यह भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है और कर्म-संस्कार के सिद्धांतानुसार नकारात्मक कर्म-संचय हेतु उत्तरदायी है।

एक्वेरियम वास्तु सम्मत नहीं:


एक्वेरियम रखने के लिए वास्तु-शास्त्र का सहारा लेने वाले झूठा तर्क देते हैं। दरअसल, “एक्वेरियम” का हिंदी या संस्कृत में कोई मौलिक शब्द ही नहीं है। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि एक्वेरियम भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है अपितु पाश्चात्य संस्कृति की देन है। वास्तु-शास्त्र की चीन में पैदा हुई चचेरी बहन “फेंग-शुई” में अवश्य उसका उल्लेख हो सकता है; परंतु फेंग-शुई का भारतीय भौगोलिक स्थिति से कोई सामंजस्य नहीं बैठता। हिमालय के उत्तर में लागू होने वाले नियम उसके दक्षिण में एकदम उल्टे हो जाते हैं। हमें विदेशी संस्कृति का आँख बंद कर अनुसरण करने से बचना चाहिए।

संतो द्वारा अस्वीकृत एवं घोर पाप-पूर्ण कृत्य:


उदयपुर में फतहसागर पाल पर एक्वेरियम की स्थापना के ठीक पहले जैन आचार्य श्री प्रमाण सागर जी ने अपनी सार्वजानिक सभा में इस परियोजना की कड़ी निंदा की थी और लोगों से अपने घरों एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में एक्वेरियम रखने से बचने को कहा था। जैन आचार्य ने अपने वक्तव्य में इसे घोर पाप पूर्ण कृत्य एवं हिंसा बताते हुए, इसे रखना लोगों का अंधविश्वासी होना कहा था। उन्होंने तो सरकार द्वारा स्थापित एक्वेरियम को देखने जाना भी हिंसा की ही अनुमोदना बताया था।

स्रोत:

जल-परी क्यों धरी?:


पशु अधिकारों हेतु समर्पित श्री चेतन पाडलिया ने अपनी “जल-परी क्यों धरी?” मुहीम द्वारा शांत और अहिंसा-प्रेमी शहर उदयपुर से एक्वेरियम संस्कृति को पूर्णतः खत्म करने का बीड़ा उठाया है। श्री चेतन पाडलिया अन्य पशु-प्रेमियों के साथ मछलियों को बचाने की अपनी मुहीम पर निरंतर कार्य कर रहे हैं। उनके प्रयासों से आम लोगों के बीच एक्वेरियम उद्योग का काला सच सामने आ रहा है। अनेक लोगों ने अपने यहाँ कभी भी एक्वेरियम न रखने का प्रण लिया है। कई लोगों ने अपने यहाँ लगे एक्वेरियम को हटा दिया है और अनेक इसे हटाने की ओर अग्रसर हैं।

स्वतंत्र, सम्मानजनक एवं प्राकृतिक जीवन हर प्राणी का जन्मसिद्ध अधिकार है। उदयपुर के प्राणी-मात्र के अधिकारों हेतु कार्यरत एक्टिविस्ट्स शहर में बढ़ती एक्वेरियम संस्कृति की कड़ी निंदा करते हैं और लोगों से सच्चाई को समझ, सभी प्राणियों के प्रति करूणा-भाव बरतने की अपील करते हैं।

शैक्षिक संस्थाओं की वीभत्सतम सोच:


स्कूलों और शैक्षिक संस्थाओं में एक्वेरियम रखने की ललक बेहद बचकानी और वीभत्सतम सोच है। सजीव प्राणियों को सजावट की सामग्री का दर्जा देना जीवन-मात्र का तिरस्कार है। यदि शिक्षा के मंदिर बालमन में ही जीवन के प्रति अनादर का भाव भर देंगे तो हमारे समाज का वैश्विक सामंजस्य और शांति का सपना कभी पूरा नहीं हो पायेगा। शिक्षा और कुशिक्षा में अंतर समाप्त हो जायेगा। हम ऐसी सभी शिक्षण संस्थाओं से अपने नैतिक मूल्यों और सार्वभौमिक प्रेम के अपने मूल सिद्दांतों पर पुनर्विचार करने की अपील करते हैं और आशा करते हैं कि वे एक स्वस्थ शिक्षा का वातावरण बनाते हुए, हमारे समाज को सकारात्मक दिशा देने की अपनी भूमिका का भली-भांति निर्वाह करेंगे।

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@xyzashu I must say Your HINDI IS PERFACT. Seriously since a long time I haven't read this much of perfect Hindi. You have a new follower mate. Thnx for the news.
Regards,
@josh92