भरत जी "भातृ प्रेम की सजीव मूर्ति" थे।
भरत एक आदर्श चरित्र -----भरत जी की भातृ भक्ति जगत में अद्वितीय है संत गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामायण में भगवान राम से पहले भक्त भरत के चरित्र के बाद भगवान राम का चरित्र लिखा है वहीँ वाल्मीकि जी ने उन्हें साधु शिरोमणि, आदर्श स्वामी भक्त, महात्मा, कर्मयोगी, त्यागी, संयमी,धीर, वीर,गंभीर, सत्य, तप, दया, क्षमा, वात्सायला, सरलता, सौम्यता, मधुरता, बुद्धिमान सर्व गुणों से संपन्न बताया है।
भरत जी दसरथ की मृत्यू पर विलाप करते हुए कहते हैं मेरे भाई जो मेरे पिता बन्धु है उनको मेरे आने की सूचना दो अब वे हे मेरे आश्रय हैं। तभी कैकेयी राम वन गमन का समाचार सुनाती है तो वह व्याकुल ह्रदय से माता को कहते हैं की मै समझता हूँ तू लोभ वश यह न जान सकी मेरा रामचंद्र जी की प्रति कैसा भाव है इसी कारन तूने राज्य के लोभ में इतना बड़ा अनर्थ कर डाला कह कर माता कौशल्या से लिपट कर रोते हुए शपथ दिलाते हुए कहतेहैं कि रामचंद्र जी को बनवास भेजने में उनकी सहमति नहीं थी वही पिता के शव के पास विलाप करते हुए भी कहते हैं आपने धर्मज्ञ रामचंद्र जी और बलशाली लक्ष्मण को वन में भेज कर यह कैसा विचार किया । जब वशिष्ठ जी भरत को समझा कर राज्य स्वीकार करने को कहते है तो भरत जी कहते हैं की रामचंद्र जी अयोध्या तो क्या तीनो लोक की राजा होने योग्य ही में उन्हें लौटा कर लाऊगा अगर मै लौटा लेने में समर्थ नहीं हुआ तो में भी उनके साथ वन में निवास करुँगा भरत के ऐसे "भातृ प्रेम" को देख कर सभी के आँखों में आँसू भर जाते हैं जब वह राम चंद्र जी को वन में लेने जाते हैं। तो निषादराज से भेट होने पर उनसे राज्य लौटने की बात करते है और उनसे सब पूछते हैं। रात में उन्होंने क्या खाया कहा सोये उन स्थानों को देख कर विलाप करते करते वेसुध हो जाते है और कहते हैं। की मुझसे तो लक्ष्मण बड़भागी है जो इस संकट की घड़ी में उनके साथ रहकर उनकी सेवा करते थे।
जब वे भारतद्वाज जी के आश्रम में पहुंचने पर भारतद्वाज जी उनसे पूछते हैं की तुम कही राम और लक्ष्मण का अनिष्ट तो नही करना चाहते तो वह कहते हैं मुझसे कोई अपराध नहीं हुआ यह तो मेरे अनुपस्थति में मेरे माता द्वारा किया गया है में तो उनकी चरण वंदना के लिए उन्हें लौटने आया हूँ । सब जानने के बाद भारतद्वाज जी ने उनका राजाओं जैसा सत्कार किया पर भरत जी राजा की भांति रामचंद्र के आसन की पूजा की और चवर लेकर मंत्री के आसन पर जाकर बैठ गए ।
यहाँ पर भरत की कितनी ऊंची भावना और भक्ति है निरभिमान और त्याग भरत जी सर्बथा निर्दोष थे। उन्हें जगत में संदेह का शिकार होना पड़ा पर उनकी स्वामी भक्ति कम नही हुई वो कहतेहैं की जब तक भ्राता के चरणों में मस्तक रख कर प्रणाम न कर लू और जब तक भ्राता अपने राज्य पर स्थापित न हो जाते मुझे शांति नही मिलेगी यह कहकर भारत जी राम जी के पास पहुंचते हैं मिलकर विलाप करते हैं और मूर्छित होकर गिर पड़तेहैं ।
राम उनसे आने का कारण पूछने पर पिता का समाचार बता लौट कर राज्य ग्रहणकरने को कहते हैं तो रामचंद्र जी पिता की वचन का वास्ता देते हैं तो भरत राम जी की चरणपादुका को चौदह वर्ष उनके प्रतनिधि के रूप में राज्य सिहासन पर रख सन्यासियों की तरह चौदह वर्ष राज्य शासन का सभी कार्य चरणपादुका को निवेदन कर करते थे जब रामचंद्र जी वन से लौटे तो दोनों पादुका को उनको पहना उनका राज्य उनको सौंप दिया और उनकी सेवा करने लगे।
भरत भातृ प्रेम अद्वितीय है