पर्यावरण के विध्वंस से उजड़ती ये दुनिया -1 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 18]steemCreated with Sketch.

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भाग-4
खून-खराबे का महासमर -आखिर क्या है इसके कारण और परिणाम?

प्रविष्टि – 18
पर्यावरण के विध्वंस से उजड़ती ये दुनिया

“पृथ्वी के पास मानव की आवश्यकताओं के लिए समुचित संसाधन हैं, लेकिन उसके लोभ और विलासिता के लिए नहीं।”
– महात्मा गाँधी

हजारों सालों से मनुष्य इस धरती पर अपने प्राकृतिक वातावरण में पशुओं की अनेक प्रजातियों के साथ अपना जीवन-यापन करता रहा है। इनमें से कई प्रजातियों के प्राणियों का उसने उनके भोजन और रहने के सुरक्षित स्थान का प्रबंध भी किया और बदले में अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए उनका खेती, परिवहन आदि में इस्तेमाल करने के अलावा उनका माँस, दूध, ऊन, पंख, चमड़ा आदि भी प्राप्त किया। परंतु जैसे ही उद्योगपतियों और पूंजीपतियों की नयी अर्थव्यवस्था ने अपने पग पसारे, इन छोटे-छोटे माँस, दूध और चमड़े के लघु-व्यवसायों ने वृहत् उद्योगों और कारखाने का रूप लेना शुरू कर दिया। बड़े-बड़े कारखानों का केवल एक उद्देश्य होता है, कम से कम समय में अधिक से अधिक लाभ कमाना। अतः उन्होंने अपनी उत्पादकता में वृद्धि कर उत्पाद की लागत में कमी लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फलस्वरूप बड़ी मात्रा में पशु-उत्पाद बड़े ही कम दामों में बाज़ार में आ गये। जिस माँस, चमडा और दूध का कभी-कभार उपयोग किया जाता था, वह नित्य उपयोग की वस्तु बन गई।

पहले पशु-पालन वही लोग करते थे जिनके पास उनके लिए पर्याप्त ज़मीन होती थी। परंतु आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ने पशु-पालन को एक ‘ज़मीनहीन’ व्यवसाय बना डाला, जिसे सी.ए.एफ़.ओ. (Concentrated Animal Feeding Operations) का नाम दिया गया। दुनिया के अधिकतर भागों में पारंपरिक पशु-पालन का व्यवसाय भारी-घनत्व वाले, ज़मीनहीन CAFO नामक “कारखानों” में रूपांतरित हो चुका है। यहाँ हजारों-लाखों की तादाद में पशुओं को रखा जाता है और हजारों किलोमीटर दूर से उनके खाने के लिए भोजन और दवाइयाँ आयात की जाती है। इस प्रकार “सस्ते” माँस का उत्पादन करने वाली इन “फैक्टरियों” ने कई “महँगी” और गंभीर समस्याओं को जन्म दे दिया है।

इस नयी प्रणाली ने पशुओं के साथ मानव का सह-अस्तित्व ही खत्म कर दिया। आज कई देश ऐसे हैं जहाँ बच्चों ने कभी मुर्गों की बांग नहीं सुनी, गाय और भेड़ को पहली बार चिड़ियाघरों में जा कर देखा! परंतु उनके माँस, अण्डे और दूध तो उनके घर में रोज़ पहुँच जाते हैं। इस व्यवस्था ने जानवरों के साथ मनुष्य के सभी भावनात्मक संबंधों के दरवाजे बंद कर दिए हैं।

कोई दस वर्ष पूर्व, मैं ऋषिकेश के एक रेस्तरों में कुछ फुर्सत से बैठा हुआ था। एक अजनबी यूरोपीयन महिला मेरे सामने वाली कुर्सी पर आ कर बैठी और मुझे बड़े ही भाव-विह्वल हो आज के अपने अनुभवों को सुनाने लगी। वह बेहद उत्साहित, भावुक और अचंभित-सी थी, लेकिन एक अजब-सी उलझन में भी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे खुश होना चाहिये या दुखी! असल में आज सवेरे राजाजी राष्ट्रीय उद्यान का भ्रमण करते वक़्त उसने अपने जीवन का एक अजूबा देखा था। उसने अपने जीवन में पहली बार एक अत्यंत विशालकाय प्राणी को देखा, जिसका उसने अपने शब्दों से एकदम सजीव चित्रण कर सुनाया। वह शांत, सौम्य और विशालकाय जीव था - हाथी, जिसे देखते ही वह रोमांचित हो उठी थी। लेकिन जब ध्यान से देखा तो लगा कि वह हाथी इतना खुश नहीं लग रहा था। सच में, वह बहुत उदास और दुखी था। उसकी आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। फिर भी न जाने क्यों उसका महावत उस पर लगातार डंडे बरसा रहा था। उस युवती ने मुझे बड़ी ही बारीकी से उस हाथी की आँख से टपकती आंसू की एक-एक बूँद के बहाव के बारे में बताया। फिर बड़ी मासूमियत से मुझसे पूछा कि क्या उस हाथी के महावत को ये सब नहीं दिख रहा था?

ये सवाल मुझे बड़ा ही गंभीर लगा। पशुओं को पालने-वाले उनकी भावनाओं के प्रति इतने संवेदनहीन कैसे हो जाते हैं? कोई भी व्यवसायी जो पशुओं का अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करते हैं या उनकी खेती करते हैं, उनके प्रति अपनी सभी संवेदनाओं को मार देते हैं। वो इनको एक निर्जीव वस्तु-सा समझ कर उपयोग करते हैं। संवेदनाओं के मरने पर आदमी की इंसानियत भी मर जाती है। उस यूरोपियन महिला की एक निरीह हाथी के प्रति व्यक्त भावनाओं और संवेदनाओं से मैं काफी प्रभावित हुआ। परंतु अनेक लोगों को पशु-प्रेम के दोहरे मानदंड अपनाते मैंने देखा है। वे अपने पालतू कुत्तों और बिल्लियों को तो अपने परिवार के सदस्य की ही तरह प्यार करते हैं किन्तु मुर्गियों और मछलियों को उतनी ही बेरहमी से पका कर, बड़े ही चाव से खाते हैं! अतः उसके प्रश्न के जवाब में मैंने प्रतिप्रश्न किया, “क्या आप माँसाहारी नहीं है?” वह बोली, “अब नहीं हूँ, पहले ज़रूर थी।” उसका जवाब सुनकर मुझे बड़ी राहत मिली। अनेक विकसित देशों में आज किसी भी व्यक्ति को उसके दैनिक जीवन में, पशुओं से किसी भी प्रकार के संपर्क का अवसर ही नहीं मिल पाता। कोई भावनात्मक रिश्ता बनना तो दूर की बात है।

दरअसल, इन संबंधों को खत्म करने में ही पशुओं का वृहत् स्तर पर ‘उत्पादन’ करने वाले इन कारखानों का व्यावसायिक-हित निहित है। परंतु प्रकृति और प्राकृतिक वातावरण से संबंध-विच्छेद करने पर स्वयं मानव का ही अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। आज मानव प्रजाति अपने अस्तित्व के विकटतम मोड़ पर पहुँच चुकी है। कई जनसँख्या-वैज्ञानिकों के अनुसार इस जगत के इतिहास का छठ्ठा महाप्रलय (सामूहिक विलोपन) समीप आ चुका है। जब से मानव ने पृथ्वी के पर्यावरण में हस्तक्षेप करना शुरू किया है, तब से अब तक प्रजातियों की विलुप्ति की दर एक हज़ार गुना बढ़ चुकी है। यह अनुमान है कि इस शताब्दी के अंत तक दुनिया भर की बीस से पचास प्रतिशत तक प्रजातियाँ हमेशा के लिए विलुप्त हो जायेगी। और उनमें से मानव-प्रजाति भी एक हो सकती है।

आम आदमी को छोड़ दीजिये, अब तक हमारे वैज्ञानिक भी सभी प्रजातियों की इस पृथ्वी को संजोय रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में स्पष्ट नहीं जान पायें हैं। लेकिन इतना बिल्कुल स्पष्ट है कि कोई भी जीव इस धरती पर फिजूल में नहीं आता। उसके अस्तित्व का अपना ही एक कारण है। मानव अपनी स्वार्थ-बुद्धि से तर्क करता है कि प्राणियों को उसके उपभोग के लिए बनाया गया है। लेकिन असलियत में कोई भी प्राणी उसकी बपौती नहीं है। हर जीव का एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। और उसका अपना ही एक कारण है। जैव-विविधता ही इस पृथ्वी के प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखती है। महाप्रलय के दौरान पृथ्वी की 95% तक प्रजातियाँ सदा के लिए विलुप्त हो जाती है। और फिर जैव-विविधता को बरकरार करने के लिए नई प्रजातियाँ विकसित होती है। एक महाप्रलय में डायनोसौर जैसी शक्तिशाली प्रजाति की विलुप्ति के बाद ही मानव प्रजाति अस्तित्व में आई थी।

लेकिन आज मानव की प्रकृति तक को अपने वश में करने की लालसा के कारण उसने हर क्षेत्र में हद से अधिक हस्तक्षेप किया है। वनों का बड़े पैमाने पर विनाश, एकल फसल-खेती के बढ़ते चलन, सर्वत्र जहरीले रसायनों का छीड़काव, ग्रीन-हॉउस गैसों के उत्सर्जन से बढ़ता वैश्विक-तापमान आदि अनेक कारणों से प्रति-दिन कई प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही है। और इन सबकी जिम्मेदार एकमात्र मानव प्रजाति है। यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाये तो मानव प्रजाति की विलुप्ति ही अन्य प्रजातियों और प्रकृति के साथ न्याय है। अभी भी मानव यदि अपनी विध्वंसक गतिविधियों को लगाम दे दे तो वो अपनी विलुप्ति से संभवतः बच सकता है। लेकिन इसके लिए उसके पास बहुत कम समय बचा है, क्योंकि सन् 2040 तक मानव प्रजाति की विलुप्ति के साथ ही प्रकृति की इस लंबित न्याय प्रक्रिया के पूर्ण हो जाने की पूरी संभावना है।

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी

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